चीन सरकार पर त्रिसुत्रीय प्रस्ताव क्या था ?
26 अक्टूबर , 1962 को चीन की सरकार द्वारा एक त्रिसुत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया,जो इस प्रकार था -
1) भारत और चीन दोनों देशों के युद्ध विराम - रेखा को वास्तविक नियंत्रण रेखा के रूप में स्वीकार करें और इस रेखा से सेनाओं को अपनी - अपनी ओर 20 किलोमीटर तक हटा ले।
2) यदि भारत न माने तो भी चीन अपनी नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर उत्तर की ओर हटा लेगा ,बशर्ते दोनों देश सीमा रेखा का सम्मान करें।
3) दोनों प्रधानमंत्री समस्या के निदान के लिए बातचीत शुरू करें।
भारत ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार किया
भारत ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए कहा कि वह 1962 वाली यथास्थिति स्वीकार करें। यह सुझाव चीन को स्वीकार्य नहीं था।
यह प्रस्ताव 20 अक्टूबर ,1962 को नेफा और लद्दाख दोनों क्षेत्रों में भीषण आक्रमण कर महत्वपूर्ण चौकियों पर कब्जा करने के बाद प्रस्तुत किया गया था।
इस प्रस्ताव के भारत द्वारा अस्वीकार करने के बाद 15 नवंबर, 1962 को चीन ने फिर नेफा और लद्दाख दोनों में क्षेत्रों में बड़े स्तर पर धावा बोल दिया।
16 नवंबर तक चीनी सेनाएं बोमडीला को पार करके असम के मैदानी क्षेत्रों में पहुंच गई। लद्दाख का वह पूरा क्षेत्र, जिसपर चीन ने अपना दावा कर रखा था, उसके अधिकार में आ गया।
इस बीच भारत की प्रार्थना पर ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा भारत को पर्याप्त मात्रा में युद्ध सामग्री भेजने के लिए कदम उठाये गये।
साथ ही जाड़े के दिनों में हिमाचल क्षेत्र में चीनियों का टिकना असंभव था और सोवियत संघ अंदर ही अंदर चीन पर युद्ध बंद करने के लिए दबाव डाल रहा था।
ऐसे में चीन ने अचानक 21 नवंबर ,1962 को खुद अपनी ओर से एक पक्षिय युद्ध विराम की घोषणा कर दी।
चीन ने 26 अक्टूबर ,1962 के त्रिसुत्रीय प्रस्ताव को फिर से दोहराया,जिसे भारत ने अस्वीकार करके फिर सितंबर ,1962 की स्थिति में वापसी की मांग की।
इस युद्ध में बड़ी संख्या में भारतीय सेना के अधिकारी और जवान हताहत हुए लेकिन यह माना गया की चीन की क्षति इससे भी ज्यादा हुई।
लेकिन इतना गंभीर युद्ध होने के बावजूद भी न तो इस युद्ध की औपचारिक रूप से घोषणा की गई और ना ही पीकिंग और नई दिल्ली में एक दूसरे के देश के दूतावास ही बंद क़िये गये।
भारत के विदेश नीति के सिद्धांत सही थे फिर भी चीनी आक्रमण ने नेहरू की नीति को विफल कर दिया।
नेहरू ने चीन की विदेश नीति में हुए परिवर्तनों और उसमे निहित परिणामों का वास्तविक अनुमान नहीं लगाया।
भारत - चीन युद्ध पर जो प्रतिक्रिया तटस्थ राष्ट्रों में हुई, वह बहुत ही आश्चर्यजनक थी।
इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्ण के लिए भारत ने जितना किया था उतना शायद ही किसी और देश ने किया हो, लेकिन संकट के समय में वे चुपचाप ही रहे।
मिस्र के राष्ट्रपति नासिर, युगोस्लाविया के टीटो और घाना के " एनक्रूमा " भारत के गहरे मित्र माने जाते थे, लेकिन उन्होंने भी भारत का साथ नहीं दिया।
घाना के एनक्रूमा ने भारत को शस्त्र सहायता देने के लिए ब्रिटेन से विरोध भी प्रकट किया।

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