मूसल युद्ध क्या था ?

ऋषियों ने सांब की उद्दंडता के कारण उसे शाप दिया कि तुम एक ऐसे " लोहे के मूसल " को जन्म दोगे, जो तुम्हारे कुल और साम्राज्य का विनाश कर देगा। 


मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। राजा उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद उन्होंने घोषणा करवाई कि आज से कोई भी नागरिक अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो ऐसा करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। 


इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। 

 एक दिन किसी बात पर सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि अंधकवंशियों के हाथों सात्यकि और प्रद्युम्न मारे गए। अंत में जब सब बाण समाप्त हो गए, धनुष टूट गये, सभी शस्त्र भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने हाथों से समुद्र तट पर लगी हुई एरका नाम की घास उखाड़नी शुरु की। यह वही घास थी, जो ऋषियों के शाप के कारण उत्पन्न हुई लोहमय मूसल के चूरे से पैदा हुई थी। 


उनके हाथों में आते ही वह घास वज्र के समान कठोर मुद्गरों के रूप में बदल गयी। अब वे रोष में भरकर उसी घास के द्वारा अपने विपक्षियों पर प्रहार करने लगे। भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलराम जी को भी अपना शत्रु समझ लिया।

फिर श्री कृष्ण और बलराम जी ने भी क्रोध में भरकर युद्धभूमि में इधर उधर विचरने और मुट्ठी में एरका घास उखाड़ कर उन्हें मारने लगे। 


एरका घास की मुट्ठी ही मुद्गर के समान चोट करती थी। जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न होकर दावानल बाँसो को ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मपाश से ग्रस्त और भगवान श्री कृष्ण की माया से मोहित यदुवंशियों के स्पर्द्धा मूलक क्रोध ने उनका ध्वंस कर दिया।

क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने एरका नामक घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई।


उस मूसल से श्रीकृष्ण सभी का वध करने लगे। जो कोई भी वह एरका नामक घास उखाड़ता, वह भयंकर मूसल में बदल जाती। इस तरह श्रीकृष्ण,बलराम और वसुदेव जी आदि को छोड़कर सभी यदुवंशी मारे गए।

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