विष्णु जी के 1000 नाम ! भाग - 9


801) अक्षोभ्य: -

किसी के द्वारा भी क्षुभित न कीये जा सकने वाले।

802) सर्ववागीव्श्ररेश्वर: -

समस्त वाणी पतियों को यानी ब्रह्मादि के भी स्वामी।

803) महाद्वद: -

ध्यान करने वाले जिसमें गोता लगा कर आनन्द में मग्न होते है ऐसे परमानंद के महान सरोवर।

804) महाभूत: -

त्रिकाल में कभी न भी नष्ट होने  वाले महाभूत स्वरूप।

805) महागर्त: - मायारूप महान गर्त वाले।

806) महानिधि: - सबसे महान निवास स्थान।

807) कुमुद: -

कु अर्थात पृथ्वी को उसका भार उतारकर प्रसन्न करने वाले।

808) कुंदर: -

हिरण्याक्ष को मारने के लिए विदीर्ण करने वाले।

809) कुंद: -

कश्यप जी को पृथ्वी प्रदान करने वाले।

810) पर्जन्य: -

बादल की तरह समस्त इष्ट वस्तुओं की वर्षा करने वाले।

811) पावन: -

स्मरण मात्र से पवित्र करने वाले।

812) अनिल: -

सदा प्रबुद्ध रहने वाले।

813) अमृतास: -

जिनकी आशा कभी विफल ना हो - ऐसे अमोघ संकल्प।

814) अमृतवपु: -

जिनकी देह कभी नष्ट ना हो।

815) सर्वज्ञ: -

सदा सर्वदा सब कुछ जानने वाले।

816) सर्वतोमुख: -

सब ओर मुख वाले यानी जहां कहीं भी उनके भक्त भक्ति पूर्वक पत्र पुष्पादि जो कुछ भी अर्पण करें,उसे भक्षण करने वाले।

817) सुलभ: -

नित्य निरंतर चिंतन करने वाले को और एकनिष्ठ श्रद्धालु भक्त को बिना परिश्रम के सुगमता से प्राप्त होने वाले।

818) सुव्रत: -

सुन्दर भोजन करने वाले यानी अपने भक्तों द्वारा प्रेम पूर्वक अर्पण किए पत्र पुष्प आदि मामूली भोजन को भी परम श्रेष्ठ मानकर खाने वाले।

819) सिद्ध: -

स्वभाव से ही सभी सिद्धियों से युक्त।

820) शत्रुजित -

देवता और सत्पुरुषों के शत्रुओं को अपने शत्रु मानकर जीतने वाले। शत्रुतापन

821) शत्रुतापन: - शत्रुओं को तपाने वाले

822) न्यप्रोध: - वटवृक्ष रूप।

823) उदुम्बर: -

कारण रूप से आकाश केभी ऊपर रहने वाले।

824) आश्वत्थ: - पीपल वृक्ष स्वरूप।

825) चाणुरान्धनिवूदन: -

चाणुर  नामक अंध्र जाति के वीर मल्ल को मारने वाले।

826) सहस्त्रर्चि: - अनंत किरणों वाले।

827) सप्तजिहृ: -

काली, कराली, मनोजवा, सुलोहिता, धुमेवर्ण स्फुलिग्डिनी और विश्व रुचि -  सात जिह्रा वाले अप्रिस्वरूप।

828) सप्तैधा: - सात दीप्ति वाले अप्रिस्वरूप ।

829) सप्तवाहन: - सात घोड़ों वाले सूर्य रूप।

830) अमुर्ति: - मूर्ति रहित निराकार।

831) अनघ: - सब प्रकार से निष्पाप।

832) अचिंत्य: - 

किसी प्रकार भी चिंतन करने में न आने वाले।

833) भयकृत् - 

दुष्टों को भयभीत करने वाले।

834) भयनाशन: - 

स्मरण करने वालों के और सत्पुरुषों के भय का नाश करने वाले।

835) अणु: - अत्यंत सूक्ष्म।

836) वृहत् - सबसे बड़े ।

837) कुश: - अत्यंत पतले और हल्के।

838) स्थूल: - अत्यंत मोटे और भारी।

839) गुनभृत् - 

समस्त गुणों को धारण करने वाले।

840) निर्गुण: - 

सत्त्व , रज और तम - इन तीनों गुणों से रहित।

841) महान -

गुण, प्रभाव, ऐश्वर्य और ज्ञान आदि की अतिशयता के कारण परम महत्व संपन्न।

842) अधृत: - 

जिनको कोई भी धारण नहीं कर सकता - ऐसे निराधार।

843) स्वधृत: -

अपने आप से धारित पानी अपनी ही महिमा में स्थित।

844) स्वास्य: - सुन्दर मुख वाले।

845) प्राग्वंश: - 

जिनसे समस्त वंश परंपरा आरंभ हुई है - ऐसे समस्त पूर्वजों के भी पूर्वज आदि पुरुष।

846) वंशवर्धन: - 

जगत प्रपञ्च रूप वंश को और यादव वंश को बढ़ाने वाले।

847) भरभृत् -

 शेषनाग आदि के रूप में पृथ्वी का भार उठाने वाले और अपने भक्तों के योग क्षेम रूप भार को वहन करने वाले।

848) कथित: - 

वेद शास्त्र और महापुरूषों द्वारा जितने गुण प्रभाव, ऐश्वर्य और स्वरूप का बारम्बार कथन किया गया है ऐसे सबके द्वारा वर्णित।

849) योगी - नित्य समाधि युक्त।

850) योगीश: - समस्त योगों के स्वामी।

851) सर्वकामद: - 

समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले।

852) आश्रम: - सबको विश्राम देने वाले।

853) श्रमण: - दुष्टों को संतप्त करने वाले।

854) क्षाम: - 

प्रलय काल में सब प्रजा का क्षय करने वाले।

855) सुपर्ण: - सुन्दर पंख वाले गरुण स्वरूप।

856) वायुवाहन: - 

वायु को गमन करने के लिए शक्ति देने वाले।

857) धनुर्धर: - धनुष धारी श्रीराम।

858) धनुर्वेद: - धनुर्विद्या को जानने वाले श्रीराम।

859) दण्ड: - दमन करने वालों की दमन शक्ति।

860) दमयिका - 

यम और राजा आदि के रूप में दमन करने वाले।

861) दम: - 

दण्ड का कार्य यानी जिसको दण्ड दिया जाता है उनका सुधार।

862) अपराजित: - 

शत्रुओं द्वारा पराजित न होने वाले।

863) सर्वसह: - 

सब कुछ सहन करने की सामर्थ्य से युक्त, अतिशय तितिक्षु । 

864) नियंता -

 सबको अपने - अपने कर्त्तव्य में नियुक्त करने वाले।

865) अनिमय: - 

नियमों में ना बंधे हुए जिनका कोई भी नियंत्रण करने वाला नहीं ऐसे परम स्वतंत्र।

866) अवम: -

जिसका कोई शासक नहीं अथवा मृत्युरहित।

867) सत्यवान् - 

बल, वीर्य, सामर्थ्य आदि समस्त सत्वों से संपन्न।

868) सात्विक: - सत्वगुणप्रधान विग्रह।

869) सत्य: - सत्यस्वरुप।

870) सत्याधर्मपरायण: - 

यथार्थ भाषण और धर्म के परम आधार।

871) अभिप्राय: - 

प्रेमीजनघ जिनको चाहते है - ऐसे परम इष्ट।

872) प्रियार्ह: -

अत्यंत प्रिय वस्तु समर्पण करने के लिए योग्य पात्र।

873) अई: - सबके परम पूज्य।

874) प्रियकृत् - भजने वालों का प्रिय करने वाले।

875) प्रितिवर्धन: - अपने प्रेमियों के प्रेम को बढ़ाने वाले।

876) विहापसगति: - आकाश में गमन करने वाले।

877) ज्योति: - स्वयंप्रकाश स्वरूप।

878) सुरुचि: - सुन्दर रुचि और कांति वाले।

879) हूतभूक् - 

यज्ञ में हवन की हुई समस्त हवि को अप्रिरूप से भक्षण करने वाले।

880) विभु: - सर्वव्यापी।

881) रवि: - 

समस्त रसों का शोषण करने वाले सूर्य।

882) विरोचन: - 

विविध प्रकार के प्रकाश फैलाने वाले।

883) सूर्य: - शोभा को प्रकट करने वाले।

884) सविता - 

समस्त जगत को प्रसव यानी उत्पन्न करने वाले।

885) रविलोचन: - सूर्यरूप नेत्रों वाले।

886) अनंत: - सब प्रकार से अंतरहित।

887) हूतभूक् - हवन की हुई सामग्री को रखने वाले।

888) भोक्ता  - प्रकृति को भोगने वाले।

889) सुखद: - 

भक्तों को दर्शन रूप परम सुख देने वाले।

890) नैकज: -

धर्मरक्षा, साधुरक्षा आदि परम विशुद्ध हेतुओं से स्वेच्छा पूर्वक अनेक जन्म धारण करने वाले।

891) अग्रज: - सबसे पहले जन्मने वाले आदि पुरुष।

892) अनिर्विण्ण: - कभी किसी प्रकार भी न उकताने वाले।

893) सदमर्वी - सदपुरूषों पर क्षमा करने वाले।

894) लोकाधिष्ठानम‌् - समस्त लोकों के आधार।

895) अद्भुत: - अत्यंत आश्चर्यमय।

896) सनात् - अनंत काल स्वरूप।

897) सनातनतम: - 

सबके कारण होने से ब्रह्मदि पुरुषों की अपेक्षा भी परम पुराण पुरुष।

898) कपिल: - महर्षि कपिल।

899) कपि: - सूर्यदेव।

900) अप्यय: - संपूर्ण जगत के लय स्थान।


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