601) श्रीवत्सवक्ष: -
श्रीवत्स जिसे प्रतीक् को वक्ष स्थल में धारण करने वाले कहा जाता है।
602) श्रीवास: -
श्री लक्ष्मी जी के वासस्थान।
603) श्रीपति: -
परम शक्ति स्वरूप श्री लक्ष्मी जी के स्वामी।
604) श्रीमति वर: -
सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्य से युक्त ब्रह्मादी समस्त लोकपालों से श्रेष्ठ।
605) श्रीद: -
भक्तों को श्री प्रदान करने वाले।
606) श्रीश: -
लक्ष्मी के नाथ।
607) श्रीनिवास: -
श्री लक्ष्मी जी के अतः करण में नित्य निवास करने वाले।
608) श्रीनिधि: -
सभी वारिस के आधार।
609) श्रीविष्णु: -
सभी मनुष्यों के लिए उनके कर्मानुसार नाना प्रकार के ऐश्वर्य प्रदान करने वाले।
610) श्रीधर: -
जगजननी श्री को वक्ष स्थल में धारण करने वाले।
611) श्रीकर: -
स्मरण, स्तवन और अर्थन आदि करने वाले भक्तों के लिए श्री का विस्तार करने वाले।
612) श्रेय: -
काल स्वरूप।
613) श्रीमान -
सब प्रकार की श्रियों से युक्त।
614) लोकत्रयाश्रराय: -
तीनों लोकों के आधार।
615) स्वक्ष: -
मनोहर कृपा कटाक्ष से युक्त परम सुन्दर आँखों वाले।
616) स्वांग: -
अतिशय कोमल परम सुन्दर मनोहर अंगो वाले।
617) शतानंद: -
लीलाभेद से सैकड़ों विभागों में विभक्त आनंद स्वरूप।
618) नंदी -
परम नंदविग्रह।
619) ज्योतिर्गेश्वर: -
नक्षत्र समुदायों के ईश्वर।
620) विजितामा -
जीता हुआ मन।
621) अविधेयात्मा -
जिनके वास्तविक स्वरूप का कोई प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सकता है।
622) सत्कीर्ति: -
सच्ची कीर्ति वाले।
623) छत्रसंशय: -
हथेली में रखे हुए बेर के समान संपूर्ण विश्व को प्रत्यक्ष देखने वाले होने से सब प्रकार के संशयों से रहित।
624) उदिर्ण: -
सब प्राणियों से श्रेष्ठ।
625) सर्वतश्रक्षु: -
सभी वस्तुओं को सब दिशाओं में सदा सर्वदा देखने की शक्ति वाले।
626) अनीश: -
जिनका दूसरा कोई शासक न हो - ऐसे स्वतंत्र।
627) शाश्त्रतस्थिर: -
सदा एकरस स्थित रहने वाले निर्विकार।
628) ग्रिड: -
लंका गमन के लिए मार्ग की याचना करते समय समुद्र तट की भूमि पर शयन करने वाले।
629) भूस्खलन: -
स्वेच्छा से नानातार अपने चरण चिन्ह्ओं से भूमि शोभा बढ़ाने वाले हैं।
630) भूति: -
अधिकार स्वरूप सभी विभूतियों के आधार स्वरूप।
631) विशोक: -
सब प्रकार से शोक रहित।
632) शोकनाशक: -
स्मृति मात्र से भक्तों के शोक का समूल विनाश करने वाले।
633) अर्चिश्मान -
चन्द्र सूर्य आदि सभी अयतियों को देदीप्यमन करने वाली अतिशय प्रकाशमय अनंत किरणों से युक्त।
634) प्राप्त: -
सभी लोकों के पूज्य ब्रह्मादि से भी पूजे जाने वाले।
635)
घट की भांति सबके निवास स्थान।
636) विशुद्धमाता -
परम शुद्ध निर्मल आत्म स्वरूप।
637) विशोदन: -
स्मरण मात्र से सभी पापों का नाश करके भक्तों के अंत: करण को परम शुद्ध कर देने वाले।
638) अनिरुद्ध: -
जिनको कोई बांधकर नहीं रख सकेगा।
639) अप्रतिरथ: -
प्रतिपक्ष से रहित।
640) प्रद्युम्न: -
परम श्रेष्ठ अपार धन से युक्त चतुर्वुह में प्रद्युम्न स्वरूप।
641) अमितविक्रम: -
अपार शतरुमी।
६४२) आद्यमेनिहा -
कालोमि नामक असुर को मारने वाले।
643) वीर: -
परम शूरवीर।
644) शौरी: -
शिकुल में उत्पन्न होने वाले श्रीकृष्ण स्वरूप।
645) शौरजैन: -
इंद्राणी शूरवीरों के भी अतिशय शूरवीरता के कारण।
646) त्रिलोकात्मा -
अन्तर्यामी रूप से तीनों लोकों के आत्मा।
647) त्रिलोकेश: -
तीनों लोकों के स्वामी।
648) केशव: -
सूर्य की किरण रूप केशबंध।
649) केशिहा -
केशी नाम के असुर हत्या वाले।
650) हरि: -
स्मरण मात्र से हर पापों का और समूल संसार का हरण करने वाले।
651) कामदेव: -
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थों को चाहने वाले मनुष्यों द्वारा अभिलित सभी कर्मणों के चेतव परमदेव।
652) वर्कपाल: -
सकामी भक्तों की कामनाओं की पूर्ति करने वाले।
653) कामी -
स्वभाव से ही पूर्णांक और अपने प्रियतमों को चाहने वाले।
654) कांत: -
परम मनोहर स्यमसुंदर देह धारण करने वाले गोपीजनवल्लभ।
655) कृतागम: -
सभी शस्त्रों को रचने वाले।
656) अनिर्वच्यपुरा: -
जिनके दिव्य स्वरूप का कोई प्रकार भी वर्णन नहीं किया जा सकता है।
657) विष्णु: -
शेषशायी भगवान विष्णु।
658) वीर: -
बिना ही पैरों के गमन करने आदि कई दिव्य शक्तियों से युक्त।
659) अनंत: -
जिनका स्वरूप, शक्ति, आयुष्री, सामर्थ्य और गुणों का कोई भी पार नहीं पा सकता।
660) धनंजय -
अर्जुन रूप से दिग्विजय के समय बहुत सा धन जीतकर लाने वाले।
661) ब्रह्मण्य: -
तप, वेद, ब्राह्मण और ज्ञान की रक्षा करने वाले।
662) ब्रह्मकृत -
पूर्वोक्त तप आदि की रचना करने वाले।
663) ब्रह्मा -
ब्रह्म स्वरूप से जगत को उत्पन्न करने वाले।
664) ब्रह्म -
सच्चिदानंद स्वरूप।
665) ब्रह्मविभाग: -
पूर्वोक्त ब्रह्मशब्दवाची तप आदि की वृद्धि करने वाले।
666) ब्रह्मवित -
वेद और वेदार्थ को पूर्णतया जानने वाले।
667) ब्राह्मण: -
सभी वस्तुओं को ब्रह्मरूप से देखने वाले।
668) ब्रह्मांड -
ब्रह्मशब्दवाची तपादि समस्त पदार्थों के आसन।
669) ब्रह्मज्ञ: -
अपने आत्म स्वरूप ब्रह्मशब्दवाची वेद को पूर्णतया यथार्थ जानने वाले।
670) ब्राह्मणप्रिय: -
ब्राह्मणों के परम प्रिय और ब्राह्मणों को अतिशय प्रिय मानने वाले।
671) महाक्रम: -
बड़े वेग से चलने वाले।
672) महाकर्मा-
भिन्न भिन्न अवतारों में नाना प्रकार के महान कर्म करने वाले।
673) महातेजा: -
जिसके तेज से सभी तेजस्वी देदीप्यमान होते हैं।
674) महोरग: -
बड़े भारी सर्प यानी वासुकी स्वरूप।
675) महाक्रतु: -
महान यज्ञ स्वरूप।
676) महायज्ञ -
बड़े यजमान लोकस प्रमाणपत्रह के लिए बड़े - बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले।
677) महायज्ञ: -
जप यज्ञ आदि भगवत प्राप्ति के साधन रूप सभी यज्ञ जिनकी विभूतियाँ हैं।
678) महाहवी: -
ब्रह्मरूप अग्नि मेंहवन किए जाने योग्य प्रपञ्चरूप हवि जिसका स्वरूप है
679) स्तब्ध: -
सबके द्वारा स्तुति किए जाने योग्य।
680) स्तवप्रिय: -
स्तुति से प्रसन्न होने वाले।
681) स्तोत्रम् -
जिसके द्वारा भगवान के गुण प्रभाव का कीर्तन किया जाता है, वह स्रोत।
682) स्तुति: -
स्तवन क्रिया।
683) स्तोता -
स्तुति करने वाले।
684) रणप्रिय: -
युद्ध से प्रेम करने वाले।
685) पूर्ण: -
समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और गुणों से परिपूर्ण करने वाले।
686) पुरयिता -
अपने भक्तों को सब प्रकार से परिपूर्ण करने वाले।
687) पुण्य: -
स्मरण मात्र से पापों का नाश करने वाले पुण्य स्वरूप।
688) पुण्यकिर्ति: -
परम पावन किर्ति वाले।
689) अनामय: -
आंतरिक और बाह्य सब प्रकार की व्याधियों से रहित।
690) मनोजव: -
मन की भांति वेग वाले।
691) तीर्थकर: -
समस्त विद्याओं के रचयिता और उपदेशकर्ता।
692) वसुरेता
हिरण्यमय पुरुष ( प प्रथम पुरुष - सृष्टि का बीज ) जिनका वीर्य है - ऐसे सुवर्णवीर्य।
693) वसुप्रद: -
प्रचुर धन प्रदान करने वाले।
694) वसुप्रद: -
अपने भक्तों को मोक्ष रूप महान धन देने वाले।
695) वासुदेव: -
वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण।
696) वसु: -
समस्त प्राणियों के वास स्थान और सबके अंत: करण में निवास करने वाले।
697) वसुमना: -
समान भाव से सबमें निवास करने की शक्ति युक्त मनवाले।
698) हवि: -
यज्ञ में हवन किये जाने योग्य हवि स्वरूप।
699) सदगति: -
सत्पुरूषों का प्राप्त किये जाने योग्य गतिरूप।
700) सत्कृति: -
जगत की रक्षा आदि सत्कार्य करने वाले।
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