विष्णु जी के 1000 नाम ! भाग - 5
401) वीर: -
पराक्रमशाली ।402) शक्तिमतां श्रेष्ठ: -
शक्तिमानों में भी अतिशय शक्तिमान।403) धर्म: -
धर्म स्वरूप।404) धर्मविदुत्तम: -
समस्त धर्मवेत्ताओं में उत्तम ।405) वैकुंठ: -
परम वामस्वरूप।406) पुरुष: -
विश्व रूप शरीर शयन करने वाले।407) प्राण: -
प्राणवायु रूप चेष्टा करने वाले।408) प्राणद: -
सर्ग के आदि में प्राण प्रदान करने वाले।409) प्रणव: -
ओंकार स्वरूप।410) पृथु: -
विराट रूप से विस्तृत होने वाले।411) हिरण्यगर्भ: -
ब्रह्मा रूप से प्रकट होने वाले।412) शत्रुघ्न: -
देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले।413) व्याप्त: -
कारण रूप से सब कार्यों में व्याप्त।414) वायु: -
पवन रूप।415) अधोक्षज: -
अपने स्वरूप में क्षीण न होने वाले।416) ऋतु: -
ऋतु स्वरूप।417) सुदर्शन: -
भक्तों को सुगमता से ही दर्शन दे देने वाले।418) काल: -
सब की गणना करने वाले।419) परमेष्ठी -
अपनी प्रकृष्ट महिमा में स्थित रहने के स्वभाव वाले।420) परिग्रह: -
शरणार्थियों के द्वारा सब ओर से ग्रहण किये जाने वाले।421) उग्र: -
सूर्यादि के भी भय के कारण ।422) संवत्सर: -
संपूर्ण भूतों के वासस्थान।423) दक्ष: -
सब कार्यों को बड़ी कुशलता से करने वाले।424) विश्राम: -
विश्राम की इच्छा वाले मुमुक्षुओं को मोक्ष देने वाले।425) विश्वदक्षिण: -
बली के यज्ञ में समस्त विश्व को दक्षिणा रूप में प्राप्त करने वाले।426) विस्तार: -
समस्त लोकों के विस्तार के स्थान।427) स्थावरस्थाणु: -
स्वयं स्थितिशील रहकर पृथ्वी आदि, स्थितिशील पदार्थों को अपने में स्थित रखने वाले।428) प्रमाणम -
ज्ञान स्वरूप होने के कारण स्वयं प्रमाण रूप।429) बीजमव्ययम -
संसार के अविनाशी कारण।430) अर्थ: -
सुख स्वरूप होने के कारण प्रयोजन रहित।
431) अनर्थ: -
पूर्ण काम होने के कारण प्रयोजन रहित।
432) महकोश: -
बड़े खजाने वाले।
433) महाभोग: -
यथार्थ सुख रूप महान भोगने वाले।
434) महाधन: -
अतिशय यथार्थ धन स्वरूप।
435) अनिर्विण्ण: -
उकताइट रूप विकार से रहित।
436) स्थविष्ठ: -
विराट रूप से स्थित।
437) अभू: -
अजन्मा।
438) धर्मयूप: -
धर्म के स्तंभ रूप।
439) महामस्त्र: -
महान् यज्ञरूप ।
440) नक्षत्रनेमि: -
समस्त नक्षत्रों के केंद्र स्वरूप।
441) नक्षत्री -
चन्द्र रूप।
442) क्षम: -
समस्त कार्यों में समर्थ।
443) क्षाम: -
समस्त जगत के निवास स्थान।
444) समीहन : -
सृष्टि आदि के लिए भलीभांति चेष्टा करने वाले।
445) यज्ञ: -
भगवान् विष्णु।
446) इज्य: -
पूजनीय।
447) मइज्य: -
सबसे अधिक उपासनीय ।
448) क्रतु: -
स्तंभयुक्त यज्ञ स्वरूप।
449) सत्रम् -
सत्य पुरुषों की रक्षा करने वाले।
450) सतांगति: -
सत्य पुरुषों की परम गति।
451) सर्वदर्शी -
समस्त प्राणियों को और उनके कार्यों को देखने वाले।
452) विमुक्तात्मा -
सांसारिक बंधन से नित्य मुक्त आत्म स्वरूप।
453) सर्वज्ञ: -
सबको जानने वाले।
454) ज्ञानमुक्तमम् -
सर्वोत्कृष्ट ज्ञान स्वरूप।
455) सुव्रत: -
प्रणतपालनादि श्रेष्ठ व्रतों वाले।
456) सुमुख: -
सुन्दर और प्रसन्न मुख वाले।
457) सूक्ष्म: -
अणु से भी अणु।
458) सुघोष: -
सुन्दर और गंभीर वाणी बोलने वाले।
459) सुखद: -
अपने भक्तों को सब प्रकार से सुख देने वाले।
460) सुहृत -
प्राणिमात्र पर अहैतु की दया करने वाले परम मित्र।
461) मनोहर: -
अपने रूप लावण्य और मधुर भाषणादि सबके मन को हारने वाले।
462) जीतक्रोध: -
क्रोध पर विजय करने वाले अर्थात अपने साथ अत्यंत अनुचित व्यवहार करने वाले पर भी क्रोध न करने वाले।
463) वीरबाहु: -
अत्यंत पराक्रमशील भुजाओं से युक्त ।
464) विदारण: -
अधर्मियों को नष्ट करने वाले।
465) स्वापन: -
प्रलय काल में समस्त प्राणियों को अज्ञान निद्रा में शयन करने वाले।
466) स्ववश: -
स्वतंत्र ।
467) व्यापी -
आकाश की भांति सर्वव्यापी ।
468) नैकात्मा -
प्रत्येक युग में लोकोद्वारा के लिए अनेक रूप धारण करने वाले।
469) नैककर्मकृत् -
जगत की उत्पत्ति।
470) वत्सर: -
सबके निवास स्थान।
471) वत्सल: -
भक्तों के परम स्नेही।
472) वत्सी -
वृंदावन में बछड़ो का पालन करने वाले।
473) रत्नगर्भ: -
रत्नों को अपने गर्भ में धारण करने वाले समुद्ररूप।
474) धनेश्वर: -
सब प्रकार के धनों के स्वामी।
475) धर्मगुप -
धर्म की रक्षा करने वाले।
476) धर्मकृत -
धर्म की स्थापना करने के लिए स्वयं धर्म का आचरण करने वाले।
477) धर्मी -
संपूर्ण धर्मों के आधार ।
478) सत् -
सत्य स्वरूप ।
479) असत् -
स्थूल जगत्स्वरुप
480) क्षरम -
सर्वभूतमय।
481) अक्षरम -
अविनाशी।
482) अविज्ञाता -
क्षेत्रज्ञ जीवात्मा को विज्ञाता कहते है उसने विलक्षण भगवान विष्णु।
483) सहस्त्रांशु: -
हजार किरणों वाले सूर्य रूप।
484) विधाता -
सबको अच्छे प्रकार से धारण करने वाले।
485) कृतलक्षण: -
श्रीवत्स आदि चिन्हों को धारण करने वाले।
486) गभस्तिनेमि: -
किरणों के बीच में सूर्य रूप से स्थित।
487) सत्त्वस्थ: -
अन्तर्यामी रुप से समस्त प्राणियों के अंत:करण में स्थित रहने वाले।
488) सिंह: -
भक्त प्रह्लाद के लिए नरसिंह रूप धारण करने वाले।
489) भूतमहेश्वर: -
संपूर्ण प्राणियों के महान ईश्वर।
490) आदिदेव: -
सबके आदि कारण और दिव्य स्वरूप।
491) महादेव: -
ज्ञानयोग और ऐश्वर्य आदि महिमाओं से युक्त।
492) देवेश: -
समस्त देवों के स्वामी।
493) देवभृद्गुरु: -
देवों का विशेष रूप से भरण पोषण करने वाले उनके परम गुरु।
494) उत्तर: -
संसार समुद्र से उद्धार करने वाले और सर्वश्रेष्ठ ।
495) गोपति: -
गोपाल रूप से गायों की रक्षा करने वाले।
496) गोप्ता -
समस्त प्राणियों का पालन और रक्षा करने वाले।
497) ज्ञानगम्य: -
ज्ञान के द्वारा जानने में आने वाले।
498) पुरातन: -
सदा एकरस रहने वाले, सबके आदि पुराण पुरुष।
499) शरीरभूतभृत् -
शरीर के उत्पादक पञ्चभूतों का प्राण रूप से पालन करने वाले।
500) भोक्ता -
निरतिशय आनन्द पुञ्जको भोगने वाले।

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