विष्णु जी के 1000 नाम ! भाग - 4


301) युगावर्त: -

चारों युगों को चक्र के समान घुमाने वाले।

302) नैकमाय: -

अनेकों मायाओं को धारण करने वाले।

303) महाशन: -

कल्प के अंत में सबको प्रसन्न करने वाले।

304) अदृश्य: -

समस्त ज्ञानेंद्रियों के अविषय ।

305) व्यक्तरूप: -

स्थूल रूप से व्यक्त स्वरूप वाले।

306) सहस्त्रजित् -

युद्ध में हजारों देव शत्रुओं को जीतने वाले।

307) अनंतजित् -

युद्ध और क्रीड़ा आदि में सर्वत्र समस्त भूतों को जीतने वाले।

308) इष्ट: -

परमानंद रूप होने से सर्वप्रिय।

309) अविशिष्ट: -

संपूर्ण विशेषणों से रहित सर्वश्रेष्ठ।

310) शिष्टेष्ट:-

शिष्ट पुरूषों के इष्टदेव।

311) शिखंडी -

मयूरपिच्छ  को अपना शिरोभूषण बना लेने वाले।

312) नहुष: -

भूतों को माया से बांधने वाले।

313) वृष: -

कामनाओं को पूर्ण करने वाले।

314 ) क्रोधहा -

क्रोध का नाश करने वाले।

315) क्रोधकृत्कर्ता -

दुष्टों पर क्रोध करने वाले और जगत को उनके कर्मों के अनुसार रचने वाले।

316) विश्वबाहु: -

 सब ओर बहुओं वाले

317) महिधर: -

पृथ्वी को धारण करने वाले।

318) अच्युत: -

छ: भावविकारों से रहित ।

319) प्रथित: -

जगत की उत्पत्ति आदि कर्मों के कारण।

320) प्राण: -

हिरण्यगर्भरूप  प्रजा को जीवित रखने वाले।

321) प्राणद: -

सबको प्राण देने वाले।

322) वासवानुज: -

वामनावतार में कश्यप जी द्वारा अदिति से इन्द्र के अनुज रूप में उत्पन्न होने वाले।

323) अपांनिधि: -

जल को एकत्रित रखने वाले समुद्र रूप।

324) अधिष्ठानम‌् -

उपादान कारण रूप से सब भूतों के आश्रय।


325) अप्रमत्त: - 

अधिकारियों को उनके कर्मानुसार फल देने में कभी प्रदान न करने वाला।

326) प्रतिष्ठित: - 

अपनी महिमा में स्थित ।

327) स्कंद: - 

स्वामीकार्तिकेय रूप।

328) स्कंदधर: - 

धर्मपथ को धारण करने वाले।

329) धूर्य: -

 समस्त भूतों के जन्मादि रूप धुरको धारण करने वाले।

330) वरद: - 

इच्छित वर देने वाले।

331) वायुवाहन: - 

सारे वायुभेदों को चलाने वाले।

332) वासुदेव: -

 समस्त प्राणियों को अपने में बसाने वाले और सब भूतों में सर्वात्मा रूप से बसने वाले, दिव्य स्वरूप।

333) वृहद्भानु: - 

महान किरणों से युक्त एवं संपूर्ण  जगत को प्रकाशित करने वाले।

334) आदिदेव: -

 सबके आदि कारण देव।

335) पुरंदर: -

 असुरों के नगरों का ध्वंस करने वाले।

336) अशोक: - 

सब प्रकार के शोक से रहित ।

337) तारण: -

 संसार सागर से तारने वाले।

338) तार: - 

जन्म - जरा मृत्यु रूप भय से तारने वाले।

339) शुर: - 

पराक्रमी।

340) शौरि: - 

शूरवीर श्री वासुदेव जी के पुत्र ।

341) जनेश्वर: - 

समस्त जीवों के स्वामी।

342) अनुकूल: - 

आत्मा रूप होने से सबके अनुकूल ।

343) शतावर्त: - 

धर्म रक्षा के लिए सैकड़ों अवतार लेने वाले।

344) पद्यी - 

अपने हाथ में कमल धारण करने वाले

345) पद्यनिभेक्षण: - 

कमल के समान कोमल दृष्टि वाले।

346) पद्यनाभ: - 

कमल को अपनी नाभि में स्थित करने वाले।

347) अरविंदाक्ष: - 

कमल के समान आंखों वाले।

348) पद्यगर्भ: - 

हृदय कमल में ध्यान करने योग्य ।

349) शरीरभृत् - 

अन्न रूप से सबके शरीरों का भरण करने वाले।

350) महर्द्भि: - 

महान विभूति वाले।

351) ऋद्ध: - 

सबसे बढ़े चढ़े।

352) वृद्धात्मा - 

 पुरातन आत्मवन् ।

353) महाक्ष: - 

विशाल नेत्रों वाले।

354) गरुडध्वज: - 

गरुड के चिन्ह् से युक्त ध्वज वाले।

355) अतुल: - 

तुलनारहित ।

356) शरभ: - 

शरीरों को प्रत्यगात्म रूप से प्रकाशित करने वाले।

357) भीम: - 

जिससे पापियों को भय हो ऐसे भयानक।

358) समयज्ञ: - 

समभाव रूप यज्ञ से प्राप्त होने वाले।

359) हविहर्रि: - 

यज्ञों में हविर्भाग को और अपना स्मरण करने वालों के पापों को हरण करने वाले।

360) सर्वलक्षणलक्षण्य: - 

समस्त लक्षणों से लक्षित होने वाले।

361) लक्ष्मीवान्  -

अपने वक्ष स्थल में लक्ष्मी को सदा बसाने वाले।

362) समितिञ्जय: -

संग्रामविजयी ।

363) विक्षर: -

नाशरहित ।

364) रोहित: -

मत्स्यविशेष का स्वरूप धारण करके अवतार लेने वाले।

365) मार्ग: -

परमानंद प्राप्ति के साधन स्वरूप ।

366) हेतु: -

संसार के निर्मित और उपादान कारण।

367) दामोदर: -

यशोदा जी द्वारा रस्सी से बंधे हुए उदर वाले।

368) सह: -

भक्त जनों के अपराधों को सहन करने वाले।

369) महिधर: -

पर्वत रूप में पृथ्वी को धारण करने वाले।

370) महाभाग: -

महान भाग्यशाली।

371) वेगवान् -

तीव्र गति वाले।

372) अमिताशन: -

सारे विश्व को भक्षण करने वाले।

373) उद्धव: -

जगत की उत्पत्ति के उपादान कारण।

374) क्षोभण: -

जगत की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर  उन्हें क्षुब्द करने वाले।

375) देव: -

प्रकाश स्वरूप।

376) श्रीगर्भ: -

संपूर्ण ऐश्वर्य अपने उदर गर्भ में रखने वाले।

377) परमेश्वर: -

सर्वश्रेष्ठ शासन करने वाले।

378) करणम् -

संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन।

379) कारणम् -

जगत के उपादान और निर्मित कारण।

380) कर्ता -

सब प्रकार से स्वतंत्र ।

381) विकर्ता -

विचित्र भुवनो की रचना करने वाले।

382) गहन: -

अपने विलक्षण स्वरूप , सामर्थ्य और लीलादि के कारण पहचानें न जा सकने वाले।

383) गुह: -

माया से अपने स्वरूप को ढक लेने वाले।

384) व्यवसाय: -

ज्ञान मात्र स्वरूप।

385) व्यवस्थान: -

लोकपालादिकों को , समस्त जीवों को, चारों वर्णाश्रमों को और उनके धर्मों को व्यवस्था पूर्वक रचने वाले।

386) संस्थान: -

प्रलय के सम्यक स्थान।

387) स्थानद: -

ध्रुवादि भक्तों को स्थान देने वाले।

388) ध्रुव: -

अविनाशी।

389) पर: -

श्रेष्ठ विभूति वाले।

390) परमस्पष्ट: -

ज्ञान स्वरूप होने से स्पष्ट रूप, अवतार विग्रह में सबके सामने प्रत्यक्ष प्रकट होने वाले।

391) तुष्ट: -

एकमात्र परमानंद स्वरूप ।

392) पुष्ठ: -

सर्वत्र परिपूर्ण।

393) शुभेक्षण: -

दर्शन मात्र से कल्याण करने वाले।

394) राम: -

योगीजनों के रमण करने के लिए नित्यानंद स्वरूप।

395) विराम: -

प्रलय के समय प्राणियों को अपने में विराम देने वाले।

396) विरत: -

रजोगुण, तमोगुण से सर्वथा शून्य।

397) मार्ग: -

मुमुक्षुजनों के अमर होने के साधन स्वरूप।

398) नेय: -

उत्तम ज्ञान से ग्रहण करने योग्य।

399) नय: -

सबको नियम में रखने वाले।

400) अनय: - स्वतंत्र।


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