भारतीय भू - वैज्ञानिक दाराशाह नौशेरवान वाडिया भाग - 1

दाराशाह नौशेरवान वाडिया ( 1883 - 1969 )

दाराशाह नौशेरवान वाडिया भारत के सबसे प्रबुद्ध भू - शास्त्री थे। उन्होंने देश में भू - विज्ञान की नीव रखी। भारतीय भू - शास्त्र पर उनका शोध और दृष्टिकोण आज भी सर्वमान्य है।


प्रारंभिक जीवन

 वाडिया का जन्म  23 अक्टूबर , 1983 को सूरत में हुआ था। वे अरदासिर कुरसेत्जी के परिवार के थे। 

अरदासिर कुरसेत्जी सुप्रसिद्ध जहाज डिज़ाइनर थे और एफ आर एस से सम्मानित किए जाने वाले पहले भारतीय थे।



वाडिया के पिता एक स्टेशन मास्टर थे और उनकी पोस्टिंग एक दूर दराज स्थित स्टेशन पर थी। वहां अच्छे स्कूल ना होने के कारण वाडिया अपनी दादी के साथ सूरत में रहकर ही पढ़े।


शिक्षा

शुरू में वे एक गुजराती स्कूल में पढ़े और फिर सर जे. जे. इंग्लिश स्कूल में। जब वे 11 वर्ष के थे , तब उनका परिवार बड़ौदा शिफ्ट हुआ।


यहां पर उनका विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ओर लगाव बढ़ा। इसमें इनके बड़े भाई की अहम भूमिका थी।


1903 मे वाडिया ने वनस्पतिशास्त्र और जीवशास्त्र में बीएससी (Bsc.) की डिग्री हासिल की। 1906 में एमएससी (Msc) के दौरान उनके विषय जीवशास्त्र और भू - शास्त्र थे।


भू - विज्ञान में रुचि

बड़ौदा कॉलेज में उनकी भू - विज्ञान में रुचि पैदा करने का श्रेय उनके शिक्षक एम. एस. मसानी को जाता है। मसानी को प्रकृति से बहुत लगाव था और वे प्राकृतिक विज्ञान के प्रोफेसर थे।


बड़ौदा के म्यूसियम ऑफ आर्ट् और साइंस में जियोलॉजी के ढेरों नमूनों का भी वाडिया ने भरपूर उपयोग किया।


प्रोफेसर के पद

 1907 में वाडिया ने जंबू स्थित प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज में 14 वर्ष जियोलॉजी के प्रोफेसर के पद पर काम किया। बाद में इस कॉलेज का नाम बदलकर महात्मा गांधी कॉलेज हो गया और वो जंबू विश्वविद्यालय के अधीन हो गया।


जियोलॉजी के साथ- साथ वाडिया अंग्रेजी भी पढ़ाते थे। उनकी अंग्रेजी पर जोरदार पकड़ थी।


हिमालय 

जंबू में रहते हुए वाडिया ने अपनी हर छुट्टी में हिमालय की पहाड़ियों की सैर की और वहां के भू - शास्त्र की जानकारी हासिल की।

उन्होंने खनिज , पत्थर , जीवाश्म इकट्ठे किए और इन नमूनों द्वारा जियोलॉजी की पढ़ायी को रोचक बनाया।

वो अपने छात्रों को शिवालिक पर्वतमाला और जंबू  क्षेत्र में अनुसंधान के लिए घुमाने ले जाते।


ऐसे ही एक भ्रमण के दौरान उन्होंने एक 3 मीटर लंबा भीमकाय जीवाश्म स्टेगेडाॅन गणेशा ढूंढ़ निकाला। यह खोज बहुत महत्वपूर्ण साबित हुयी।


हिमालय पर्वतमाला की रचना और भू - शास्त्र को समझने के लिए वाडिया ने बहुत प्रयास किए। 

वाडिया पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उत्तर - पश्चिमी हिमालय में पत्थर निर्माण की एक असामान्य श्रेणी पर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया।




उन्होंने नंगा पर्वत के आस पास स्थित पर्वतमाला में एक अनूठे मोड़ " नी - बेंड " भी खोजा। हिमालय के संशोधन पर पूरी तरह से समर्पित था।




हिमालय के संशोधन पर पूरी तरह समर्पित वाडिया देहरादून में इस्टिट्यूट फॉर हिमालियन जियोलॉजी  स्थापित करने में सफल हुए।


संस्थापक निदेशक

1968 से 1 वर्ष तक वो उसके संस्थापक निदेशक भी रहे। बाद में उनकी याद में संस्था का नाम बदलकर वाडिया इस्टिट्यूट फॉर हिमालियन जियोलॉजी कर दिया गया।


संस्थानों के स्थापना

उन्होंने कई राष्ट्रीय स्तर की संस्थानों के स्थापना में अहम भूमिका निभायी । 


इसमें नैशनल जियोफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट , हैदराबाद और गोवा स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशिनोग्राफी प्रमुख है।

1921 में वाडिया ने प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज छोड़ कर जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई ) में सहायक सुपरिटेंडेंट का का पद संभाला। उस समय उनकी उम्र 38 साल की थी।


जीएसआई में भर्ती

वो पहले भारतीय थे जो बिना किसी यूरोपीय डिग्री के जीएसआई में भर्ती हुए। 

 जीएसआई में काम करने से उन्हें उत्तर - पश्चिमी हिमालय में शोधकार्य का भरपूर मौका मिला और उन्होंने यहां बहुत बुनियादी काम किया।


आर. डी. वेस्ट

आर. डी. वेस्ट ने वाडिया के काम के बारे में लिखा -

" वाडिया हिमालय में यहां भी गए , उन्होंने वहां शैल  - विज्ञान की अनसुलझी समस्याओं पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला। "


कार्य

वाडिया ने  भू - शास्त्र संबंधी लगभग सौ शोध - पत्र लिखे। 

1928 में उन्होंने एक जीवाश्म खोपड़ी एक्टीनोडाॅन खोज निकली। यह खोज कश्मीर में पहाड़ों के निर्माण के युग को निश्चित करने में सफल रही।


वो तांबे, निकिल , शीशे और जस्ते जैसे खनिजों के अपार भण्डार खोजने में भी सफल रहें।


जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में काम करते समय वाडिया ने अपनी छुट्टियां ब्रिटिश म्यूजियम में बितायी। यहां उन्होंने कश्मीर में खोजें रीढ़ वाले प्राणियों के जीवाश्मों पर शोध किया।


इसी दौरान उन्होंने जर्मनी , ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया में स्थित तमाम भू - विज्ञान से संबंधित संस्थाओं का दौरा भी किया।


मृदा विज्ञान ( साॅइल साइंस) की नजरअंदाज करने पर वाडिया को दुख हुआ और उन्होंने इसको सुधारने के लिए खुद ठोस कदम उठाए।


1935 में एम. एस. कृष्णन और पी. एन. मुखर्जी की मदद से उन्होंने पहली बार साॅइल मैप ऑफ इंडिया संकलित किया। इसे जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने प्रकाशित किया। इस पहल के बाद लगातार इस प्रकार के नक्शे छपते रहे।


रिटायर होने के बाद

जियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से रिटायर होने के बाद वाडिया श्रीलंका (तब सीलोन) में खनिज वैज्ञानिक का पद संभाला। उन्होंने श्रीलंका द्वीप के उत्तम जियोलाजिकल नक्शे तैयार करवाए।


उन्होंने पानी सप्लाई, बांध निर्माण और अन्य इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स की भुभर्गीय जांच पड़ताल भी की।


वाडिया ने कोलंबो का पहला जियोलाजिकल नक्शा तैयार किया।


1944 में वाडिया ने इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस की स्थापना की और 1949 में एटॉमिक मिनिरल्स डिविजन की नीव रखी।


वो एक ऐसी राष्ट्रीय नीति के पक्ष में थे। जिनके अंतर्गत देश के खनिज , पानी , गैस और तेल सम्पदा का समुचित दोहन हो सके।


मृत्यु

इस कहानी को पढ़ते हुए भू - विज्ञान की जटिलताएं सहजता से समझ में आ जाती है कि पत्थर की भी जुबान होती है। भारतीय भू - विज्ञान की नीव रखने वाले इस व्यक्ति की मृत्यु 86 वर्ष की आयु में 15 जून 1969 को हुआ।


Comments

Popular posts from this blog

युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ

किस ऋषि का विवाह 50 राजकुमारियों से हुआ था ?

पुराणों में इंद्र, सप्तऋषि मनु और मन्वन्तर क्या है ?