भारतीय खगोलशास्त्री एम. के. वायनू बप्पू के कार्य !
कार्य
1) कॉलेज में ही उन्होंने एक स्पेक्ट्रोग्राफ का निर्माण किया। इसके लिए उन्होंने अपने सोने वाले कमरे की खिड़की से लगातार 6 रातों तक एक ' संवेदनशील ' प्लेट पर प्रकाश पड़ने दिया।
1946 में इस विषय पर उन्होंने अपना पहला शोधपत्र लिखा।
2) 1948 में एसएससी की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद वे अपने लिए खगोलशास्त्र का विषय चुनना चाहते थे लेकिन भारत में इस पेशे के अवसर बहुत कम थे।
3) उसी समय इंग्लैंड के खगोलशास्त्री सर हैरल्ड स्पेंसर जोन्स और हारवर्ड युनिवर्सिटी के प्रोफेसर हाॅरलो शेपली भारत की यात्रा पर आए थे। वायनू ने उनसे हैदराबाद में मुलाकात की।
4) शेपली की मदद से 1949 में हैदराबाद सरकार द्वारा दिए वजीफे के कारण वायनू हॉरवर्ड युनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए जा पाए।
5) हॉरवर्ड आने के कुछ महीनों में वायनू ने एक नया पुच्छल तारा ( कॉमेट ) खोजा।
6) आकाश के सामान्य चित्रों को देखते हुए उन्हें एक फोटो - प्लेट पर कुछ अलग सा नजर आया और इस तरह वायनू ने अपने साथियों के साथ नया पुच्छल तारा को खोजा।
जो बाद में " बप्पू - बोक - न्यूकिर्क " के नाम से जाना गया।
7) उनकी इस खोज के लिए एस्ट्राॅनामिकल सोसायटी ऑफ द पैसेफिक ने बप्पू को डॉनोहो कॉमेट मेडल से सम्मानित किया।
8) 1951 में पीएचडी समाप्त करने के बाद बप्पू पहले भारतीय थे जिन्हें खगोलशास्त्र पर शोध कार्य करने के लिए प्रतिष्ठित कारनेगी मेलन फेलोशिप मिली।
इस वजह से उन्हें माउंट पैलोमार स्थित दुनिया के सबसे बड़े 200 - इंच टेलिस्कोप पर काम किया।
9) वायनू ने वौल्फ - रेयत तारों पर गहन शोध किया और इस क्षेत्र में उन्होंने पूरे विश्व में बहुत सोहरत हासिल हुई।
10) 1953 में वायनू भारत लौटे , उस समय भारत में खगोलशास्त्र पर शोध करने के सुविधाएं एकदम प्राचीन और देश में उपलब्ध सबसे बड़ा टेलिस्कोप मात्र 15 - इंच का रिफ्रैक्टर था!
11) 1954 में वायनू ने वाराणसी स्थित उत्तर प्रदेश वेधशाला में प्रमुख खगोल विज्ञानी के रूप में काम शुरु किया।
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री के वेधशाला बेहतर स्थान पर ले जाने के लिए उन्होंने राजी किया।
12) वायनू ने इसके लिए नैनीताल के पास एक पहाड़ी चुनी। कुछ ही साल में उन्होंने वहां पर कई युवा और प्रेरक वैज्ञानिक को प्रशिक्षित किया।
जिन्होंने बाद में देश खगोलशास्त्र के विकास में अहम भूमिका निभायी।
13) 1960 में भारत सरकार के आग्रह पर 170 साल पुरानी बप्पू कोडिईकॅनाल वेधशाला के सबसे युवा निदेशक बने।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1772 में इसे मद्रास में स्थापित किया गया। फिर उसे 1899 में कोडिईकॅनाल में स्थानांतरित किया।
14) इससे पहले प्रतिष्ठित खगोलशास्त्री जैसे एन . आर. पोगसन और एवरशेड प्रभाव के जॉन एवरशेड इस संस्था के निदेशक रह चुके।
15) बप्पू ने यहां पर एक उपकरण निर्माण और दूसरी ऑप्टिक्स की वर्कशॉप स्थापित की। इसमें कई छोटी दूरबीनों और स्पेक्ट्रोस्कोप्स का निर्माण हुआ।
16) उन्होंने पुराने सोलर दूरबीनों में जटिल इलेक्ट्रोनिक्स का समावेश कर सूर्य की जांच पड़ताल करने के लिए उनकी क्षमता को बढ़ाया।
17) कोडिईकॅनाल में बप्पु ने खगोलशास्त्र पर शोधकार्य करने वाली एक संपूर्ण संस्था और एक वेधशाला का सपना था।
पूरे साल सूर्य अध्ययन के लिए कोडिईकॅनाल वेधशाला की स्थिति एकदम सही नहीं थी।
18) नये स्थान की खोज बप्पू ने कन्याकुमारी से लेकर तिरुपति तक का भ्रमण किया और अंत में तमिलनाडु में जवडी पहाड़ी के पास एक सही स्थान मिला।
यह उन्हें एक पठार मिला, जो चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ था। कावालूर नाम के गांव के पास स्थित यह स्थान खगोलशास्त्रीय अवलोकनों के लिए सबसे अच्छा था।
19) बप्पू ने कावालूर में 38 - इंच का टेलिस्कोप स्थापित किया। बाद में इसी वेधशाला में उन्होंने 100 सेमी कार्ल जाईज टेलिस्कोप लगाया।
20) 1971 में कोडिईकॅनाल और
कावालूर वेधशालाओं ने सम्मिलित रूप से एक स्वतंत्र शोध केंद्र की स्थापना की - "द इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स (आईआईए )।
इस संस्था ने देश में खगोलशास्त्र के क्षेत्र में अनुसंधान का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस संस्था का एक सैद्धांतिक ग्रुप और दूसरा उपयोगी ग्रुप था। जिसका काम देश भर में स्वदेशी टेलीस्कोपों का निर्माण करना था।
21) आईआईए की शुरुआत रमन रिसर्च सेंटर में हुई थी , पर जल्द ही वो कोरमंगला, बैंगलोर में अपने ही कैंपस में स्थानांतरित हो गया।
वायनू चाहते थे कि आईआईए खगोलशास्त्र में विश्व का एक अग्रणी केंद्र बने और इस दिशा में उन्होंने बहुत परिश्रम किया।
22) कावालूर में कार्ल जाईस के टेलिस्कोप लगने के 15 दिनों के अंदर ही वहां एक अनूठा और विरल "ऑकलटेशन " दिखा।
इससे बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा - गैनीमिड में वातावरण होने का प्रमाण मिला। इसके कुछ साल बाद इसी टेलिस्कोप से यूरेनस के रिंग दिखाई दिए। जिसने ब्रह्माण्ड के बारे में हमारा ज्ञान बढ़ा।
इस प्रकार वायनू एक विश्व स्तरीय क्षमता वाली वेधशाला स्थापित करने में सफल हुए।
23) 1970 में नोबल पुरस्कार विजेता एस चन्द्रशेखर "आईआईए " देखने गए और उन्होंने वायनू के प्रयासों की बहुत प्रशंसा की।


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