एक दूसरे को मारने का वरदान मांगने वाले दो भाई सुंद- उपसूंद
सुंद और उपसुंद
हिरण्यकश्यपु के वंश में निकुम्भ नाम का एक महाबली और प्रतापी दैत्य निकुम्भ था। निकुम्भ के दो पुत्र थे जिनका नाम सुंद और उपसुंद था।
दोनों बड़े शक्तिशाली, पराक्रमी, क्रूर और दैत्यों के सरदार थे। दोनों भाईयों में बहुत प्रेम था। एक के बिना दूसरा न कहीं जाता, न कुछ खाता पीता था।
दोनों ने त्रिलोकी को जीतने की इच्छा से विधि पूर्वक दीक्षा ग्रहण करके विंध्य पर्वत पर तपस्या प्रारंभ की।
सुंद और उपसुंद के शरीर पर मिट्टी का ढेर लग गया। वे केवल " एक अंगूठे के बल पर खड़े होकर, दोनों हाथ ऊपर उठाए सूर्य को निहारते रहे।
सुंद और उपसुंद की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रम्हा जी ने उन दोनों को अमरता के अलावा कोई भी वर मांगने को कहा। तब सुंद और उपसुंद ने कहा -
" आप हमें ऐसा वरदान दे की हम कोई भी रूप धारण कर सके और हमें दूसरा कोई भी न मार सके। यदि हमारी मृत्यु हो तो केवल एक दूसरे के हाथों से ही हो।"
ब्रम्हा जी सुंद और उपसुंद को यह वर देकर अपने लोक को चले गए।
वरदान पाकर सुंद और उपसुंद दिग्विजय के लिए यात्रा पर निकले और इंद्रलोक, यक्ष, नाग, राक्षस, मलेच्छ आदि सब पर विजय प्राप्त कर ली।
वे दोनों सिंह और हाथी का रूप धारण कर ऋषियों की हत्या करने लगे।
तब ब्रम्हा जी के कहने पर, विश्वकर्मा ने तिलोत्तमा नाम की अप्सरा को बनाया। वह अत्यन्त सुन्दर थी।
सुंद और उपसुंद मदिरा पान करके विंध्य पर्वत पर गए, उन्होंने तिलोत्तमा को देखा और दोनों उसे अपनी पत्नी बनाने की इच्छा जताने लगे,नशे के कारण दोनों एक दूसरे से युद्ध करने लगे और एक दूसरे को ही मार दिया और ब्रम्हा जी का वरदान फलित हुआ ।


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