नैन सिंह रावत
पहले भारतीय ,जिन्होंने हिमालय के दुर्गम क्षेत्रों का नक्शा बनाया !
भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद,अंग्रेजो की निगाहें हिमाचल क्षेत्र पर पड़ी।
चीन के सम्राट ने तिब्बत की सीमाएं विदेशीयों के लिए सिल कर दी थी और उलंघन करने की सजा मौत थी।
अंत में "थाॅमस मांटेगोमरी " को एक उपाय सूझा क्यों ना लामाओ के वेश में भारतीय जासूस भेजे और इन दुर्गम स्थानों के नक्शे बनवाए।
जिन लोगों के नाक नक्श तिब्बतियों जैसे हो और वे पहाड़ी तौर तरीकों से वाकिफ हो, पढ़े लिखे हो और ज्यादा तनख्वाह ना मांगे।
हिमालयी सर्वेक्षण के लिए " थाॅमस मांटेगोमरी " ने नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मणि सिंह को चुना।
चीन के सम्राट ने तिब्बत की सीमाएं विदेशीयों के लिए सिल कर दी थी और उलंघन करने की सजा मौत थी।
अंत में "थाॅमस मांटेगोमरी " को एक उपाय सूझा क्यों ना लामाओ के वेश में भारतीय जासूस भेजे और इन दुर्गम स्थानों के नक्शे बनवाए।
जिन लोगों के नाक नक्श तिब्बतियों जैसे हो और वे पहाड़ी तौर तरीकों से वाकिफ हो, पढ़े लिखे हो और ज्यादा तनख्वाह ना मांगे।
हिमालयी सर्वेक्षण के लिए " थाॅमस मांटेगोमरी " ने नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मणि सिंह को चुना।
नैन सिंह रावत का प्रारंभिक जीवन
नैन सिंह का जन्म सन् 1930 में हुआ था।इनका बचपन अथाह गरीबी में बीता उनकी कोई पुश्तैनी जमीन जायदाद नहीं थी और परिवार बहुत बड़ा था। उनके लिए घर खर्च चला पाना भी बहुत मुश्किल था।
नैन सिंह ने जवानी में कर्ज लेकर व्यापार शुरू किया,लेकिन वे उसमे भी असफल रहे। कुछ समय " हिमालय " के "मिलन" गांव में स्कूल की मास्टरी भी की।
मणि सिंह ,नैन सिंह के बड़े भाई थे।
सर्वेक्षण का कठिन प्रशिक्षण
सन् 1863 में "थाॅमस मांटेगोमरी " ने दोनों भाईयों को सर्वेक्षण का कठिन प्रशिक्षण दिया। ये ट्रेंनिग बाद में हर " सर्वेयर " या " चैन मैन " के लिए अनिवार्य हो गई।
1) उन्हें एक निश्चित गति से चलना सिखाया गया , जिससे उनका हर कदम एक निश्चित 33 इंच की दूरी तय करें।
2) कदमों की संख्या गिनने के लिए उन्हें एक 100 मोतियों की माला दी गई थी (सामान्य मालाओं में 108 मोती होते हैं) ।
3) एक माला खत्म होने पर वो, 10,000 कदम चले होंगे और उन्होंने 5 मील की दूरी तय की होगी।
छिपे यंत्र
धार्मिक सैलानी के भेष में नैन सिंह के सामान में कई छिपे हुए यंत्र थे।
1) चाय के मग में एक छिपा तहखाना था जिसमें पारा भरा था - जिससे क्षैतिज (होराइजन) ढूंढने में मदद मिलती थी।
2) उनकी छड़ी में एक तापमापी (थर्मामीटर) छुपा था। जिसे वो उबलते पानी में डुबोकर वहां की उंचाई मापते थे।
3) सबसे महत्वपूर्ण चीज नैन सिंह जी के प्रार्थना चक्र में छुपी हुई थी। आम तौर पर इसमें " कागजों पर मंत्र " लिखे होते है।
लेकिन नैन सिंह का विशेष प्रार्थना - चक्र में उसके " फिल्ड - नोट्स : नक्शों, दूरियों, ऊंचाइयों से भरा था।
इन पैदल सर्वेयर के नाम भी अजीब थे सर्वेयर को पंडित कहते थे।
उदाहरण के लिए - नैन सिंह का नाम चीफ पंडित और उनके चचेरे भाई मणि सिंह का नाम सेकेंड पंडित था।
इस तरह हर सर्वेयर के साथ यह पंडित नाम हमेशा के लिए चिपक गया और बाद में सभी सर्वेयर पंडित के नाम से पुकारे जाने लगे।
इस तरह हर सर्वेयर के साथ यह पंडित नाम हमेशा के लिए चिपक गया और बाद में सभी सर्वेयर पंडित के नाम से पुकारे जाने लगे।
अभियान की शुरूआत
सन् 1865 में दोनों पंडितो ने अपना पहला अभियान शुरू किया। तिब्बती बॉर्डर पार करते समय उन्हें अपना भेष बदलना पड़ा।
नेपाल पहुंचने पर दोनों भाई अलग हुए।
नैन सिंह " ल्हासा " जाने के लिए तिब्बत के बॉर्डर की ओर, एक व्यापारियों के दल के साथ, तिब्बत में प्रवेश किया। रास्ते में व्यापारियों ने उसे धोखा देकर सारे पैसे लुट लिए। छिपे होने के कारण उपकरण बच गए।
नैन सिंह की डायरी का एक पृष्ठ
नैन सिंह ने सन् 1865 की गर्मियां अपने पुराने किस्म के उपकरण के साथ ल्हासा में घूमते हुए बितायी। खाने के लिए वो गुजरते लोगों से भीख मांगते।
सन् 1865 में वो " ल्हासा " पहुंचे और वहां फकीरों जैसे रहने लगे।
वो कई हफ्तों तक एक धर्मशाला में रहें, रात के समय वो धर्मशाला की छत से तारों का अध्ययन करते थे।
पानी उबलने के तापमान के आधार पर उन्होंने समुद्र तट से " ल्हासा " की ऊंचाई का अनुमान 3240 मीटर लगाया।
आज आधुनिक उपकरणों द्वारा यह ऊंचाई 3540 मीटर मापी गई है।
आज आधुनिक उपकरणों द्वारा यह ऊंचाई 3540 मीटर मापी गई है।
तारों की " कोणीय ऊंचाई " नापकर नैन सिंह ने " ल्हासा " के अक्षांश का अनुमान भी लगाया था।
अप्रैल में नैन सिंह भारत लौट आए। कारवां तिब्बत की एक प्रमुख नदी सांगपो के साथ पश्चिम की ओर बढ़ रहा था और एक रात नैन सिंह चुपके से कारवां छोड़कर भाग गए। फिर वे उत्तर की ओर बढ़े और 27 अक्टूबर सन् 1866 को वे सर्वे के देहरादून स्थित मुख्यालय में पहुंचे।
नैन सिंह ने दो और यात्राएं की। सन् 1867 की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान उन्होंने " पश्चिम तिब्बत " का दौरा किया और वहां स्थित " ठोक - जालुंग " की खदानों को देखा।
वहां के मजदूर केवल सतह को ही खोद रहे थे, क्योंकि उससे पृथ्वी की उर्वरकता कम नहीं होगी।
सन् 1873 से 1875 तक नैन सिंह ने कश्मीर में लेह से ल्हासा की यात्रा की।
50 वर्षों तक इस क्षेत्र की ठोस जानकारी का आधार नैन सिंह द्वारा बनाए गए नक्शे ही थे।
अन्तिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा असर पड़ा। उनकी आंखे बहुत कमजोर हो गई।
उसके बाद नैन सिंह कई सालों तक अन्य " पंडितो " को सर्वे और जासूसी की कला सीखाते रहें।
देहरादून में नैन सिंह के नक्शों के आधार पर बेहतर नक्शे बनाए गए।
इस काम को " ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रीकल सर्वे" की स्थापना के बाद अधिक बल मिला। इस विस्तृत सर्वे ने शुद्धता से " अक्षांश और दक्षांत " की स्थापित कि गई और फिर धीरे - धीरे बिंदुओं के बीच त्रिकोण बनाकर भारत के तटवर्ती और अन्दर के क्षेत्रों का पूरा नक्शा बनाया गया।
नैन सिंह की तनख्वाह
नैन सिंह को हर महीने सिर्फ 20 रुपए की तनख्वाह मिलती थी। उन्होंने 16,000 मील की कठीन यात्रा की क्योंकि कोई अंग्रेज ऐसा नहीं कर सकता था।
सम्मान और ईनाम
नैन सिंह के काम की ख्याति अब फैल चुकी थी। सन् 1876 में नैन सिंह की उपलब्धियों के बारे में " ज्योग्राफिकल मैगजीन " में लिखा गया। उसके बाद तो बस पुरस्कारों का तांता ही लग गया।
1) सेनिवृत्ती के बाद भारत सरकार ने नैन सिंह को बक्शीश में एक गांव और 1000 रुपए का ईनाम दिया।
2) सन् 1868 में रॉयल ज्योग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को एक सोने की घड़ी पुरस्कार में दी।
सन् 1877 में इसी संस्था ने नैन सिंह को विक्टोरिया पेंट्रन्स मेडल से भी सम्मानित किया। मेडल पर यह शब्द अंकित थे -
" यह वो इंसान है जिसने असिया के बारे में हमारे ज्ञान को बेहद समृद्ध किया। उस समय अन्य कोई व्यक्ति यह काम नहीं कर सका "।
3) पेरिस स्थित ज्योग्राफर्स ने भी नैन सिंह को एक घड़ी भेट की।
4) 27 जून 2004 भारत सरकार ने " ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रीकल सर्वे " में नैन सिंह के अहम रोल के उपलक्ष्य में एक डाक टिकट जारी किया।
मृत्यु
नैन सिंह रावत की मृत्यु 1995 में 65 वर्ष की उम्र में हुई थी।








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