बनारस के, दुर्गा कुण्ड मन्दिर की पौराणिक कथा !
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक जिन दिव्य स्थलों पर देवी माँ साक्षात प्रकट हुईं, वहाँ निर्मित मंदिरों में उनकी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई है, ऐसे मंदिरों में चिह्न पूजा का ही विधान है।
दुर्गा मंदिर में भी प्रतिमा के स्थान पर देवी मां के मुखौटे और चरण पादुकाओं का पूजन होती है।
दुर्गा मंदिर में भी प्रतिमा के स्थान पर देवी मां के मुखौटे और चरण पादुकाओं का पूजन होती है।
कहानी है एक विवाह की !
काशी नरेश सुबाहू ने अपनी पुत्री के विवाह योग्य होने पर उसके स्वयंवर की घोषणा की। स्वयंवर दिवस की पूर्व संध्या पर राजकुमारी को स्वप्न में राजकुमार सुदर्शन के संग उनका विवाह होता दिखा।
राजकुमारी ने अपने पिता काशी नरेश सुबाहू को अपने स्वप्न की बात बताई।
काशी नरेश ने इस बारे में जब स्वयंवर में आए राजा - महाराजाओं को बताया तो सभी ने राजा सुदर्शन को सामूहिक रूप से युद्ध की चुनौती दे दी।
राजा सुदर्शन ने उनकी चुनौती को स्वीकार कर मां भगवती से युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद माँगा।
राजा सुदर्शन ने जिस स्थल पर आदि शक्ति की आराधना की, वहाँ देवी माँ प्रकट हुई।
राजा सुदर्शन ने को विजय का वरदान देकर स्वयं उसकी प्राणरक्षा की।
कहा जाता है कि जब राजा - महाराजाओं ने सुदर्शन को युद्ध के लिए ललकारा तो मां आदि शक्ति ने युद्धभूमि में प्रकट होकर सभी विरोधियों का वध कर डाला।
इस युद्ध में इतना रक्तपात हुआ कि वहाँ रक्त का कुंड बन गया, जो वर्तमान में दुर्गा कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध है।
सुदर्शन कौन थे ?
सुदर्शन अयोध्या के राजकुमार थे। राजा सुदर्शन की शिक्षा - दीक्षा प्रयागराज में भारद्वाज ऋषि के आश्रम में हुई थी। शिक्षा पूरी होने के उपरान्त राजा सुदर्शन का विवाह काशी नरेश राजा सुबाहू की पुत्री से हुआ था।


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