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Showing posts from May, 2020

बनारस ( काशी ),भारत का सबसे प्राचीन शहर

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पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार दुनिया का सबसे प्राचीन शहर  वाराणसी ( काशी )   है।  नगरों में बसने के अब तक प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर  एशिया  का सबसे प्राचीन शहर  वाराणसी  को ही माना जाता है। इसमें लोगों के निवास के प्रमाण  3,000 साल  से अधिक पुराने हैं। कुछ विद्वान इसे करीब  5,000 साल  पुराना मानते हैं, लेकिन हिन्दू धर्मग्रंथों में मिलने वाले उल्लेख के अनुसार यह और भी पुराना शहर है। विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ  ऋग्वेद  में  काशी  का उल्लेख मिलता है। इसका उल्लेख  महाभारत और उपनिषद  में भी किया गया है। काशी ( बनारस )  का उल्लेख  मत्स्य पुराण  ,  लिंग पुराण,अग्नि पुराण, स्कन्द पुराण  और  ब्रह्म पुराण  में भी मिलता है।

बनारस के, राजघाट में मिली मूर्तियां कौन सी है भाग - 2

7) इनमें अनेक तरह के केश विन्यास मिलते है।  इनमें से कुछ प्राचीन रंगाई के प्रमाण मिलते है। "अलक " में केश विधि की दोनों ओर घुंघराली लटे होती थी। 8) राज घाट में देवी देवताओं की कम मूर्तियां मिली है जिसमें त्रिनेत्र और अर्धचंद्र मंडल में शंकर जी का सिर बहुत ही सुन्दर है। 9) राजघाट में एक मूर्ति मिली है जिसमें अशोक के वृक्ष पर पड़े झूले पर एक औरत झूल रही है। 10) एक गोल पट्ट पर किन्नर युगल दिखलाए गए है। "एक दूसरे पट्ट पर हिरण को घास से लुभाता हुआ व्यक्ति अंकित किया गया है। उसने एक भारी कोट पहना हुआ है पर वास्तव में वह नंगा है। उसके दाहिने कंधे पर मोर पंखों का भार है।" 11) राजघाट से छोटे - छोटे वादकों की भी मूर्तियां मिली है। राजघाट में मिली गुप्तकालीन करकाओं की डोटियों का एक सुंदर संग्रह कला भवन में है।  यह डोटियां मकर (भेड़) या दूसरे पशु पक्षियों के आकार में होती थी जो उस वक्त के कुम्भारों द्वारा बनाया गया होता था।

बनारस के, राजघाट में मिले मूर्तियां कौन सी है भाग - 1

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1) गुप्त सम्राट परम वैष्णव भक्त थे। राजघाट में मिली मुद्राओं से भी पता चलता है कि गुप्तकाल में बनारस में विष्णु पूजा होती थी। 2) श्री कृष्ण की भी पूजा बनारस में प्रचलित हो गई थी। 3) बनारस में बकरियां कुंड में श्री कृष्ण की गोवर्धनधारी एक बहुत सुंदर गुप्तकाल मूर्ति कला भवन में है। वह मूर्ति खंडित है होने पर भी बहुत सुंदर है। 4)गुप्त  सम्राट कुमारगुप्त कार्तिकेय के उपासक थे।   राजघाट में मिली कुछ मुद्राओं से पता चलता है कि गुप्तकाल में यहां कार्तिकेय की पूजा होती थी। 5) भारत कला भवन में गुप्तकाल के कार्तिकेय की बाल काल्य एक सुंदर प्रतिमा रखी है। 6) राजघाट की खुदाई में गुप्तकाल की मिट्टी के शीर्ष सैकड़ों की संख्या में और दूसरी मूर्तियां 2000 की संख्या में मिली है।

बनारस के ,सारनाथ से जुड़ी कुछ खास बातें !

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सारनाथ से जुड़ी कुछ ऐसी बातें जो अनसुनी है या जिनके बारे में भ्रांतियां है - (1) सारनाथ में चौखंडी स्तुप, इसे सीता की रसोइया भी कहते हैं। इसका रामायण काल की सीता से कोई वास्ता नहीं है।  यह ममता नाम की ब्राह्मणी से जुड़ा है, जिसने हुमायूं को घायल अवस्था में एक रात का आश्रय दिया था।                   चौखंडी स्तुप बाद में हुमायूं ने इसका निर्माण, उसी महिला के नाम करवाया। यहीं पर भगवान बुद्ध की मुलाकात उन 5 दोस्तों से हुई, जो बाद में उनके पहले शिष्य बन गए। 2) मूलगंध कुटी बिहार का निर्माण "धर्मपाल " ने भगवान बुद्ध की याद में करवाया। वास्तव में मूलगंध कुटीबिहार पुरातात्विक खंडहर परिसर में था।                  मूलगंध कुटी बिहार 3) सारनाथ में बोधिवृक्ष नहीं है। वह बौद्ध गया में है। सारनाथ में जो वृक्ष है, वह धर्मपाल ने श्रीलंका के टीथ टेंपल से लाकर लगाया था। 4) सारनाथ में कोई भी स्तूप बुद्ध के बताए आकार में नहीं है। भारत में सिर्फ मध्यप्रदेश के सांची को छोड़कर...

बनारस के सारनाथ में खुदाई में क्या क्या मिला है ?भाग - 3

गुप्तयुग में सारनाथ में मनुश्री, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, यमारी, अमोघसिद्धी इत्यादि की मूर्तियां मिली। देवताओं में तारा ,वसुंधरा और मारीचि की मूर्तियां मिली है। 11) तारा की मूर्ति - तारा की मूर्ति के दायें हाथ वरद मुद्रा में और बाएं हाथ में निलोत्पल में दिखलाया जाता है। तारा की कल्पना एक सुभूषित भारतीय नारी के रूप में होती थी। 12) जभल या वैश्रवण- जभल या वैश्रवण की उस समय पूजा होती थी और इनकी मूर्तियां संघरामो में भी होती थी। बाहर निकलती आंखों और दांत वाला तुदिल और नंगें बदनवाला  जभल  जमीन पर पड़ी मूर्तियों को खुचलता हुआ दिखाया गया है। 13) वसुंधरा - जभल के साथ वसुंधरा की मूर्तियां मिलती, जो जभल के तुलना में ज्यादा भयावह है। 14) मरीचि - व्रजवाराही मरीचि की मूर्ति के तीन सिर होते है जिसमें एक वराह का होता है उसके हाथ में भिन्न - भिन्न आयुध होते है। एक धनुर्धारि की मुद्रा में, यह देवी सप्त वराह वाले रथ पर सवार दिखलाई जाती है। तिब्बत में व्रजवाराही की पूजा भी होती है।

बनारस के सारनाथ में खुदाई में क्या - क्या मिला है ? भाग -2

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7) धमेख स्‍तूप - इसके बारे मान्‍यता है कि यहीं भगवान बुद्ध ने अपने शिष्‍यों को प्रथम उपदेश दिया था। यह 143 फीट ऊंचा है,यह स्‍तूप ठोस गोलाकार बुर्ज की भांति दिखता है। धमेख स्‍तूप की नींव सम्राट अशोक के समय रखी गई थी, जबकि इसका विस्‍तार कुषाण काल में हुआ।                    धमेख स्तूप  गुप्‍तकाल में यह पूरी तरह तैयार हुआ था। इसका व्‍यास 93 फीट (28.5 मीटर) और ऊंचाई 143 फीट (33.35 मीटर) और भूमिगत भाग सहित कुल ऊंचाई 42.60 मीटर है। 8) अशोक स्तंभ - सारनाथ में 1904 - 1905 में अशोक स्तंभ खुदाई में मिली।             अशोक स्तंभ (ऊपर का हिस्सा )           अशोक स्तंभ (नीचे का हिस्सा)  लगभग 8 फीट ऊंचा ( 15.25 मीटर ) और इतनी ही गोलाई में बना अशोक स्तंभ ईसा पूर्व तीसरी सदी का है। 9) मूलगंध कुटी अवशेष - ह्वेन सांग के अनुसार इसकी ऊंचाई 61 मीटर थी। इसमें लगे अलंकृत ईटों और बनावट को देखने के बाद इतिहासकार इसे गुप्तकाल का मानते हैं।         ...

बनारस के सारनाथ में खुदाई में क्या क्या मिला है ? भाग -1

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सारनाथ में मिली गुप्त कालीन और कुषाण कालीन प्रतिमाएं और काफ़ी कुछ खुदाई में मिला है जो इस प्रकार है - 1) बुद्ध की मूर्ति - सारनाथ में मिली सबसे सुंदर  बुद्ध  की एक मूर्ति है  सिंहासन पर पद्मासनस्थ धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा  में बैठे है  पीछे प्रभामंडल है।  नीचे पीठ पर दो हिरनों के बीच में एक चक्र है और उसके दोनों ओर पंचवर्षीय भिक्षु और एक दाता अंकित है और मूर्ति में तो अपूर्व आध्यात्मिक सौंदर्य की झलक मिलती है और गढ़न में तो ये अपूर्व है। 2) मैत्रेय और अवलोकितेश्वर की प्रतिमाएं - गुप्तकाल  में " सारनाथ " में बोधि - सत्व पूजा की बहुत चलन थी। इसके फलस्वरूप  मैत्रेय और अवलोकितेश्वर  की सुंदर प्रतिमाएं मिलती है।                                बुध की मैत्रेय प्रतिमा                                      अवलोकितेश्वर की प्रतिमा अवलोकितेश्वर ...

बनारस की वेदशाला किसने बनवाई ?

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राजा सवाई जय सिंह द्वितीय  ने,जो अपने समय के प्रसिद्ध ज्योतिर्विद थे। 1737  में यहां एक वेदशाला स्थापित की। समरथ  नाम के  जयसिंह  के एक प्रसिद्ध ज्योतिषि ने इस वेदशाला का नक्शा बनाया था और  सदाशिव के  निरीक्षण में सरदार  महोन  ने,जो  जयपुर  के एक शिल्पी थे। यह वेदशाला तैयार करवाई। इसमें  दक्षिणोत्तर  -   भित्तिय  यंत्र , सम्राट यंत्र , दिगेश यंत्र, नालीवलय यंत्र, चन्द्र यंत्र  जिनसे लग्न इत्यादि साधने का काम लिया जाता था। वाराणसी की वेधशाला के यन्त्र   1) सम्राट यंत्र -  इस यंत्र द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की क्रांति विषुवांस, समय आदि का ज्ञान होता है। 2) दक्षिणोत्तर भित्तिय यंत्र -  यस यंत्र से मध्याह्न के उन्नतांश मापे जाते हैं। 3)  चन्द्र यंत्र -  इस यंत्र से नक्षत्रादिकों की क्रांति स्पष्ट विषुवत काल आदि जाने जाते हैं। 4) दिगेश यंत्र -  इस यंत्र से नक्षत्रादिकों दिगंश मालूम किए जाते हैं। 5) नाड़ी वलय यंत्र - इस यंत्र द्वारा सूर्य तथा अन्य ग्र...

बनारस के रामनगर संग्रहालय में क्या - क्या है ?

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रामनगर संग्रहालय   रामनगर संग्रहालय में खूबसूरती से नक्काशी की गई बालकानी, भव्य मंडप और खुले आंगन का भव्य रूप देखने को मिलता है। इसके साथ ही संग्रहालय में कई प्राचीन वस्तुओं का नायाब कलेक्शन है। इनमें प्राचीन घड़ियां, पुराने शास्त्रागार, तलवारें, पुरानी बंदूकें, विनटेज कार और हाथी के दांतों की बग्गी, पालकी और हाथी के दांत के कई सामानों के साथ ही कई तरह के वाद्ययंत्र शामिल हैं। इसके साथ ही शाही परिवारों के मध्ययुगीन वेशभूषा, आभूषण और फर्नीचर आदि पर की गई उम्दा कारीगरी का नमूना भी है। यहां मध्यकालीन युग के राजा-रजवाड़ों की शानों शौकत का भी नजारा देखने को मिलेगा। खगोलीय घड़ी है आकर्षण का केंद्र - सबसे अद्भुत वो दुर्लभ खगोलीय घड़ी है जो ना केवल समय बताती है, बल्कि साल, महीना, सप्ताह और दिन के साथ-साथ सूर्य, चंद्र और अन्य ग्रहों का खगोलीय विवरण भी देती है। इस घड़ी का निर्माण  वर्ष 1852  में बनारस के शाही दरबार के खगोलविद  मूलचंद  ने किया था।

बनारस के रामनगर किले की स्थापना किसने करवाई ?

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रामनगर के किले के स्थापना के विषय में दो राजाओं का जिक्र है - रामनगर किला गंगा के पूर्वी तट पर  1742  में  राजा मंशाराम  द्वारा  रामनगर  किला स्थापित किया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अन्य देशी रियासतों की भांति यहां भी राजतंत्र की समाप्ति हो गई और  बनारस राज्य  देशी रियासत का भी भारतीय गणराज्य में विलय हो गया। रामनगर  दुर्ग में संग्रहीत अति दुर्लभ कलाकृतियों को सुरक्षित रखने के विचार से  महाराजा विभूति नारायण सिंह  ने दुर्ग के अंदर ही एक संग्रहालय में समस्त राजसत्ता और राज परिवार की कलाकृतियों को कई वीथिकाओं में सुसज्जित कराकर रखा था। किले का निर्माण इस किले का निर्माण  17 वीं शताब्दी  में  राजा बलवंत सिंह  ने कराया था।  यह महल काशी नरेश का शाही निवास था। इस संग्रहालय का सबसे अहम हिस्सा  विद्या मंदिर  है, जो शासकों के काल की अदालत का प्रतिनिधित्व करता है।  इस किले में रखी  तोप, चांदी का सिंहासन  और कई ऐसी चीजें हैं जो अंग्रेजों के समय की याद दिलाती हैं। ...

बाबर बनारस कब आया था ?

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💠मुगल वंश के संस्थापक  बाबर  ने  इब्राहिम लोदी  को पानीपत के मैदान में  सन‌् 1526 ईसवी  में और इस तरह दिल्ली पर मुगलों का अधिकार हो गया।                      बाबर 💠अभी पुरे  उत्तरी हिंदुस्तान  पर  बाबर  का कब्जा नहीं हुए था।   लोदी साम्राज्य  के पूर्वी सुबों पर  अफगान  सरदारों का दख़ल था। लोदियों  ने  दरिया खान  को  मुहम्मद सुल्तान  के नाम से उन सुबों का बादशाह बना दिया। 💠फिर  भी  1527  में  हुमायूं  ने  गाजीपुर  तक कब्जा कर लिया।                  हुमायूं पर जैसे ही  हुमायूं  वापस हुआ की अफगानों ने पुनः उस भाग पर कब्जा कर लिया और  बाबर  को पुनः  1528  और  1529  में  अवध  को फतह करना पड़ा। 💠बाबर  की लड़ाई में  बनारस  मुख्य केंद्र बन गया।  बाबर  ने  बनारस जीत क...

बनारस का,15 और 16 वीं सदी का विश्वनाथ मंदिर कैसा था ?

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अकबर के शासन काल में   विश्वनाथ मन्दिर  बनाने का श्रेय   टोडरमल और नारायण भट्ट  को जाता है। दिवाकर भट्ट  ने अपनी  "  दानहारावली "  में कहा भी है कि   रामेश्वर भट्ट  के पुत्र  नारायण भट्ट  ने  वाराणसी (बनारस)  में विधि पूर्वक   विश्वेश्वर मन्दिर  की स्थापना की थी।   डॉक्टर आल्तेकर  के अनुसार  टोडरमल  की सहायता से  नारायण भट्ट  ने   सन् 1585 ईसवी  के करीब यह कार्य संपादित किया।  15 वीं सदी का विश्वनाथ मंदिर  15 वीं सदी  के  विश्वनाथ मन्दिर  के नक्शे के अनुसार ही  टोडरमल  ने मन्दिर का निर्माण करवाया। प्राचीन मंदिर में पांच मंडप थे। इसमें से पूर्व की ओर पांचवे मण्डप की नाप  125 × 35 फूट थी। यह रंग मंडप था और यहां धार्मिक उपदेश होते थे। टोडरमल  ने केवल मंडप की मरम्मत करवा दी। मन्दिर की कुर्सी 7 फूट और ऊंची उठाकर सड़क के बराबर कर दी गई। 16 वीं सदी का व...

बनारस का दुर्गा मन्दिर किस शैली में बना है ?

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नागर शैली में बना मंदिर यह मंदिर भारतीय वास्‍तुकला के  उत्‍तर भारतीय शैली यानी नागर शैली  में बना है। इस मंदिर में " एक वर्गाकार आकृति " का तालाब है। जो   दुर्गा कुंड  के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का शिखर काफी ऊंचा है जो चार कोनों में विभाजित है और हर कोने में एक प्रमुख शिखर और अन्य छोटे शिखर बने हुए हैं।  यह इमारत   लाल रंग  की है। मंदिर में   देवी के वस्‍त्र  गेरू रंग के है। कुंड के दक्षिण आयताकार आंगन में नागर शैली में बने मंदिर के चारों ओर बरामदे हैं।  बीच में मंडप से सजा हुये मुख्य मंदिर के पश्चिमी द्वार के बायीं तरफ  गणपति  और   दक्षिण तरफ  भद्रकाली  और  चंड भैरव  के मंंदिर है। पूर्व - उत्तर कोण में  महालक्ष्मी  और  महासरस्वती  भी विराजमान हैं। इसके अलावा  राधाकृष्ण, हनुमान, शिव आदि देवी-देवताओं की भी मूर्तियां हैं। नवरात्रि का आयोजन आराधना की  नौ दिनों तक  दर्शन-पूजन शृंखला में  चतुर्थी तिथि  को देवी के...

बनारस के,दुर्गा मंदिर का स्थापना इतिहास

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महादेव की नगरी काशी में शक्ति की अधिष्ठात्री देवी मां दुर्गा के सभी नौ स्वरूपों के मंदिर हैैं। इनमें  मां कूष्मांडा  दरबार देश - दुनिया में प्रख्यात हैं। स्थापना का इतिहास देवी का मंदिर तो  18 वीं शताब्दी  में बना था लेकिन इसके स्थापना की कहानी सदियों पुरानी है। काशीराज सुबाहु  दुश्मनों से लड़ते हुए यहां घनघोर जंगल में पहुंचे। थकान के कारण  पीपल  के विशाल पेड़ के नीचे सैनिकों संग विश्राम करने लगे। इस दौरान देवी का स्मरण कर कृपा की याचना की।  आंख लगी तो स्वप्न में देवी ने यहीं निवास की इच्छा जताई। नींद खुलने पर राजा ने दुश्मनों को परास्त किया और पेड़ के नीचे देवी उपासना शुरू कर दी। पूजा पाठ के लिए पुरोहित नियुक्त किया और शरीर त्याग दिया। बंगाल की रानी बंगाल की महारानी  भवानी 18 वीं शताब्दी  में जब " काशी" आई तो भ्रमण के दौरान उन्हें पीपल के नीचे भीड़ दिखी।  पूजा - आराधना के बारे में जानकारी की तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। श्रद्धालु रानी ने यहां पत्थरों से देवी कूष्मांडा का विशाल " भव्य...

बनारस के, दुर्गा कुण्ड मन्दिर की पौराणिक कथा !

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पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक जिन दिव्य स्थलों पर देवी माँ साक्षात प्रकट हुईं, वहाँ निर्मित मंदिरों में उनकी प्रतिमा स्थापित नहीं की गई है, ऐसे मंदिरों में चिह्न पूजा का ही विधान है। दुर्गा मंदिर  में भी प्रतिमा के स्थान पर  देवी मां के मुखौटे और चरण पादुकाओं  का पूजन होती है। कहानी है एक विवाह की ! काशी नरेश   सुबाहू  ने अपनी पुत्री के विवाह योग्य होने पर उसके स्वयंवर की घोषणा की। स्वयंवर दिवस की पूर्व संध्या पर राजकुमारी को स्वप्न में   राजकुमार सुदर्शन  के संग उनका विवाह होता दिखा। राजकुमारी ने अपने पिता काशी नरेश  सुबाहू  को अपने स्वप्न की बात बताई।  काशी नरेश ने इस बारे में जब स्वयंवर में आए राजा - महाराजाओं को बताया तो सभी ने  राजा सुदर्शन को  सामूहिक रूप से युद्ध की चुनौती दे दी। राजा सुदर्शन  ने उनकी चुनौती को स्वीकार कर  मां  भगवती  से युद्ध में विजयी होने का आशीर्वाद माँगा।  राजा सुदर्शन  ने जिस स्थल पर   आदि शक्ति  की आराधना...

बनारस का , काशी विश्वनाथ मंदिर कितनी बार तोड़ा गया ?

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चीनी यात्री (ह्वेनसांग )  के अनुसार उसके समय में काशी में सौ मंदिर  थे, किन्तु मुस्लिम आक्रमणकारियों ने सभी मंदिर ध्वस्त कर मस्जिदों का निर्माण किया। 1)   काशी विश्वनाथ मंदिर  का निर्माण सर्वप्रथम  11 वीं सदी  में हुआ था।                 काशी विश्वनाथ मंदिर 2) सन् 1190  में   राजा हरीशचन्द्र  ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसे सन्   1194 ईसवी में मुहम्मद गौरी  ने लूटने के बाद,  काशी विश्वनाथ मंदिर  को तुड़वा दिया था।                 मुहम्मद गौरी     4) इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे  सन्  1447  में " जौनपुर "के   सुल्तान महमूद शाह  द्वारा तोड़ दिया गया। 5)  सन्  1585 ईसवी  में  टोडरमल  की सहायता से  पं. नारायण भट्ट  द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर...

बनारस का कौन सा घाट किसने बनवाया ?

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सन् 1832 ईसवी के करीब   बनारस  के अधिकतर घाट बनकर तैयार हो चुके थे। उनमें से कुछ यहां दिए गए है - 1)  आदिकेश्वर घाट - आदिकेश्वर घाट वरुणा और गंगा के संगम पर है। यहां  संगमेश्वर और ब्रह्मेश्वर के मंदिर और घाट  18 वीं सदी  के अंत में सिंधिया के दीवान ने बनवाया था। 2)  मुंशी घाट - इस घाट को नागपुर के राजा के एक मंत्री  " श्रीधर मुंशी"  ने बनवाया था। वे  सन् 1812 ईसवी  में अपने पद से अलग होकर यहां आए थे।  उनकी मृत्यु  सन्  1824 ईसवी  में हुई। उन्होंने केवल  " गिरि घाट "  के दक्षिण में मुंशी घाट बनवाया। 3) मानमंदिर घाट - इस घाट को  17  वीं सदी  के आरंभ में  अम्बर  के प्रसिद्ध राजा   मानसिंह  ने यात्रियों के ठहरने के लिए बनवाया था। 4) मीर घाट - इस घाट को पहले  जरासंध घाट  भी कहते थे। बनारस के फौजदार  मीर रुस्तम अली  ने  सन् 1735 ईसवी ...

बनारस के घाटों के नाम ,18 वीं सदी के

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18 वीं सदी के बनारस के घाटों के नाम कुछ इस तरह है। बनारस के घाटों के नाम  - 1) अस्सी घाट    2) तुलसी घाट 3) हनुमान घाट     4) शिवाला घाट 5) राय बलदेव सहाय घाट     6) वच्छराज घाट 7) खिड़की घाट    8) केदार घाट 9) चौकी घाट    10) नारद घाट 11) अमृतराव घाट   12) भुवनेश्वर घाट 13) गंगा महल घाट  14) खोरी घाट 15) चौसठ्ठी घाट   16) पांडेय घाट 17) राणा घाट    18) मुंशी घाट 19) दशाश्वमेध घाट      20 ) मानमंदिर घाट 21) जरासंध घाट ( मीर घाट ) 22) उमराव गिरि घाट    23) शमशान घाट ( जलसाई घाट ) 24) मणिकर्णिका घाट         25) वीरेश्वर घाट 26) संकठा घाट     27) भोसला घाट 28) यगेश्वर घाट     29) राम घाट 30) मंगलागौरी घाट    31) दलपत घाट 32) पंच गंगा घाट   33) ब्रह्म घाट 34) दुर्गा घाट     35) राममंदिर घाट 36) लाल घाट     37) गाय घाट 3...

बनारस के ब्रजभाषा के कवि, 17 वीं सदी के मध्य के

17 वीं सदी के मध्य में बनारस में  ब्रजभाषा  के इतने कवि थे कि उन्होंने अपनी ओर से " कवितद्र सरस्वती " को बनारस का यात्री कर छुड़वाने के उपलक्ष्य में प्रशस्तियों सहित एक मान पत्र भेंट किया। इन प्रशस्तियों का संग्रह  "अनूप लाइब्रेरी "  बीकानेर में सुरक्षित है। कविद्र चंद्रिका में कवियों के नाम ये है - (1) सुखदेव  (2) नंदलाल   (3) भिप       (4) पण्डितराज  (5) रामचंद्र      (6) कविराज  (7) धर्मेश्वर (8) हरिराम    (9) रघुनाथ  (10) विश्वभरनाथ मैथिल    (11) शंकरोपाध्याय   (12) भैरव   (13) सितापती त्रिपाठी ,पुत्र मणीकंठ    (14) गड़   (15) गोपाल त्रिपाठी ,पुत्र मणीकंठ (16) विश्वनाथ राम  (17) चिंतामणि        (18) देवराय    (19) कुलमणि       (20) त्वरित कविराज  (21) गोविंद भट्ट  (22) जयराम       (23) वंशीधर   (24) गोपीनाथ     (25) राम...

बनारस का विस्तार, पुराणों के अनुसार

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प्राचीन वाराणसी का विस्तार काफी दूर तक था। वरना (वरुणा) के पश्चिम में राजघाट का किला है। जहां निसंदेह प्राचीन वाराणसी बसी थी; 1 मील लंबा और 400 गज चौड़ा है। 1) ब्रम्ह पुराण - ब्रम्ह पुराण में शिव जी पार्वती जी से कहते है कि - वरना (वरुणा) और अस्सी दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है। उसके बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए। ब्रम्ह पुराण के अनुसार इस क्षेत्र का प्रमाण 5 कोस का था। उसके उत्तर में गंगा और पूर्व में सरस्वती नदी थी। उत्तर में गंगा दो योजन तक शहर के साथ- साथ बहती थी। 2) मत्स्य पुराण  - मत्स्य पुराण के अनुसार यह नगर पश्चिम की ओर ढाई योजन तक फैला था और दक्षिण में यह क्षेत्र  वरुणा में गंगा तक आधा योजन फैला हुआ था। 3) स्कन्द पुराण - स्कन्द पुराण के अनुसार इस क्षेत्र का विस्तार चारों ओर चार कोस था। 4) लिंग पुराण - लिंग पुराण के अनुसार "कृतिवास " से आरंभ होकर यह क्षेत्र एक - एक कोस चारों ओर फैला हुआ है। इसके बीच में " मध्मेश्वर" नामक भूमि लिंग है। यहां से भी एक - एक कोस चारों ओर क्षेत्र का विस्तार है। व...