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Showing posts from June, 2021

सूफी अम्बा प्रसाद भाग - 5

गिरफ्तारी और शहादत सन् 1915 में जिस समय अंग्रजों ने पूर्ण प्रभुत्त जमाना चाहा,तो चारों ओर उथल - पुथल मच गई।  शिराज पर घेरा डाला गया। उस समय सूफी जी ने बाएं हाथ से रिवॉल्वर चला कर मुकाबला किया ,लेकिन अंत में अंग्रजों ने इन्हें पकड़ लिया।  उनका कोर्ट मार्शल किया गया। फैसला हुआ की सूफी जी को कल गोली से उड़ा दिया जाय। सूफी जी कोठरी में बंद थे। सुबह जब देखा तो वे समाधि की अवस्था में थे। उनके प्राण निकल चुके थे।  सूफी जी पैर से कलम पकड़ कर लिख सकते थे। 

सूफी अम्बा प्रसाद भाग - 4

ईरान यात्रा सन् 1909 में सूफी जी ने " पेशवा " अखबार निकाला। उन्हीं दिनों बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन ने जोर पकड़ा। सरकार को डर था कि कहीं पंजाब में भी बंगाल जैसी स्थिति न हो। इसलिए वे सूफी जी को गिरफ्तार करना चाहते थे। इसके बाद सूफी जी, सरदार अजीत सिंह और जिया - उल - हक ईरान चले गए। वहां पहुंचकर जिया - उल - हक की नियत बदल गई, वे सूफी जी को पकड़वा कर सरकार से ईनाम लेना चाहते थे। सूफी जी को शक हुआ और उन्होंने इन्हें ही आगे भेज दिया और पुलिस के द्वारा पकड़वा दिया।  फिर वहां से सूफी जी ने " आबे हयात " नामक पत्र निकाला और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने लगे। सरदार साहिब के टर्की चले जाने पर वहां का सारा काम सूफी जी ने ही संभाला और फिर वहां आकर सूफी  के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

सूफी अम्बा प्रसाद - भाग 3

  सूफी अम्बा प्रसाद नेपाल में  सन् 1906 में पंजाब में फिर धर - पकड़ शुरू हुई तो अजीत सिंह के भाई सरदार किशनसिंह और "भारत माता सोसाइटी" के मंत्री मेहता आनंद किशोर के साथ वे नेपाल चले गए। नेपाल में सूफी जी का परिचय नेपाल के गर्वनर जंगबहादुर जी से हुआ और दोनों में काफ़ी गहरी दोस्ती हो गई, बाद में जंगबहादुर जी को, सूफी जी को आश्रय देने के कारण उनके पद से हटा दिया गया और उनकी सारी संपत्ति जब्त कर ली गई। सूफी जी को वहां से गिरफ्तार करके लाहौर लाया गया। लाला पिंडीदास जी के पत्र " इण्डिया" में प्रकाशित इनके लेखों के सम्बंध में ही सूफी जी पर अभियोग चलाया गया, लेकिन निर्दोष सिद्ध होने पर बाद में इन्हें छोड़ दिया गया।  बाद में सरदार अजीत सिंह भी छूट गए और सन् 1909 में भारत माता बुक सोसाइटी की नीव डाली गयी। इसका अधिकतर कार्य सूफी जी ही किया करते थे। इन्होंने " बागी मसीहा " नामक एक पुस्तक प्रकाशित करवायी , जो बाद में जब्त कर ली गयी।

सूफ़ी अम्बा प्रसाद भाग - 2

सूफी जी का निजाम हैदराबाद से बहुत घनिष्ठ संबंध था। जेल से छुटने के बाद वे वहां गये। निज़ाम ने सूफी जी के लिए एक अच्छा सा मकान बनवाया है। तब सूफी जी निजाम से विदा लेकर वहां से पंजाब चले आए। पंजाब आकर उन्होंने " हिंदुस्तान " अखबार में काम किया। ऐसा सुनने में आया था कि इनकी बुद्धिमता से डर कर अंग्रेज सरकार ने 1000 रूपए महिने के वेतन के साथ जासूस विभाग से पेश किये थे, लेकिन अम्बा प्रसाद जी ने इसे स्वीकार नहीं किया। " हिंदुस्तान " संपादक से कुछ अनबन के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उसी समय सरदार अजीत सिंह ने "भारत माता सोसाइटी" की नीव डाली और पंजाब के " न्यू कॉलोनी बिल" के विरूद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। 

सूफ़ी अम्बा प्रसाद भाग - 1

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भगत सिंह के के द्वारा फरवरी, 1928 में लिखे शहीदों के जीवन परिचय के अनुसार -  सूफी अम्बा प्रसाद जी का जन्म 1858 में मुरादाबाद में हुआ था। इनका दाहिना हाथ जन्म से ही कटा हुआ था। सूफी जी हंसी में कहा करते थे - सन् 1857 में हमनें अंग्रजों के विरुद्ध मुकदमा किया और हाथ कट गया और मृत्यु हो गई। फिर पुनर्जन्म हुआ लेकिन, हाथ कटे का कटा आ गया। शिक्षा अम्बा प्रसाद जी ने मुरादाबाद, जालंधर और बरेली आदि कई शहरों में शिक्षा प्राप्त की। एफ. ए. पास करने बाद इन्होंने वकालत पढ़ी और वे उर्दू के लेखक भी थे।    क्रान्तिकारी जीवन  सन् 1890 में इन्होंने मुरादाबाद से जाम्युल इलूक नामक उर्दू साप्ताहिक पत्र निकाला। अम्बा प्रसाद जी हास्य रस के प्रसिद्ध लेखक थे। वे हिंदू - जेड एकता के कट्टर पक्षपाती थे और शासकों की कड़ी आलोचना किया करते थे।  सन् 1897 में इन्हें राजद्रोह के अपराध में डेढ़ साल की जेल भी हुई। जब 1899 में छूटकर आये, तब यू. पी. के छोटे राज्यों पर अंग्रेज हस्तक्षेप कर रहे थे।  अम्बा प्रसाद जी पर झूठा दोषारोपण का अभियोग चलाया गया और उसकी सारी जायदाद सरकार द्वारा जब्त कर ली ग...

प्रफुल्ल चाकी भाग - 5

प्रफुल्ल चाकी की गिरफ्तारी पुलिस ने प्रफुल्ल और खुदीराम की गिरफ्तारी पर 5 हजार का ईनाम भी रखा था।  प्रफुल्ल 1 मई,1908 को दोपहर में समस्तीपुर स्टेशन पहुंचे, उन्होंने मोकामा घाट का दूसरे दर्जे का टिकट खरीदा। प्रफुल्ल ने नए कपड़े और जूते पहन रखे थे, जो उन्होंने सुबह ही बाजार से खरीदे थे। प्रफुल्ल गाड़ी में बैठ गए, उसी डिब्बे में नंदलाल बनर्जी नाम का बंगाल पुलिस का दरोगा " सिंह भूमि " ड्यूटी पर जा रहा था। वो उस दिन छुट्टी पर था।  उसे प्रफुल्ल पर शक हुआ। नंदलाल बनर्जी ने प्रफुल्ल से बांग्ला भाषा में बातचीत की। नंदलाल बनर्जी ने अगले स्टेशन पर उतरकर पुलिस को टेलीग्राम कर दिया। "मोकामा " स्टेशन पर पुलिस प्रफुल्ल को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद थी।  प्रफुल्ल शारीरिक रूप से बहुत मज़बूत थे, उसने पुलिस वालों को धक्का दिया और भागने लगा, लेकिन जब उसे लगा की अब वो पकड़ा जाएगा। वह गिरफ्तार नहीं होना चाहता था। प्रफुल्ल चाकी ने अपनी पिस्तौल से खुद को गोली मार ली। यह घटना 1 मई 1908 के शाम 4 बजे की है। अंग्रेज सरकार ने प्रफुल्ल का सिर काटकर पहचान के लिए कलकत्ता भेजा, क्योंकि प्रफुल्ल ने...

प्रफुल्ल चाकी भाग - 4

  प्रफुल्ल चाकी का क्रांतिकारी जीवन   क्रांतिकारी स्वामी ब्रह्मानंद ने ही प्रफुल्ल चाकी में देशभक्ति और देश पर बलिदान होने की भावना भरी। ब्रह्मानंद ने अन्य विद्यार्थियों उपेंद्र बनर्जी, उल्लासकर दत्त,सतीशचंद्र सरकार और विभूति भूषण सरकार आदि। उस समय पटना के प्रसिद्ध वकील केदारनाथ बनर्जी की पत्नी हिमांगनी देवी " संगठन" को आर्थिक सहायता पहुंचाती और डॉ. जे. एन. मित्रा इन पांचों को " पंच पांडव" कहते थे। डॉ. जे. एन. मित्रा और सतीशचंद्र सरकार ने ही प्रफुल्ल , उपेंद्र, उल्लासकर दत्त और विभूति का परिचय हिमांगनी देवी से कराया था। वह तभी से उनको आर्थिक सहयोग कर रही थी।  वारिंद्र कुमार घोष , प्रफुल्ल चाकी पर बहुत भरोसा करते थे। जब वारिंद्र ने 1907 में " मानिकतल्ला " में गुप्त रूप से बम फैक्ट्री शुरू की तब, प्रफुल्ल को भी वहां बुलाकर एक महत्त्वपूर्ण काम सौंपा ।तत्कालीन बंगाल और आसाम के लेफ्टिनेंट गवर्नर " बूम फील्ड " की हत्या का जिम्मा प्रफुल्ल को सौंपा। लेकिन किसी कारण ये नहीं हो सका था। 

प्रफुल्ल चाकी भाग - 3

  " किंग्जफोर्ड " की हत्या प्रफुल्ल और अरविंदो घोष के भी काफी करीब थे। अरविंदो घोष, वारिंद्र कुमार घोष के बड़े भाई थे। " जुगांतर संगठन " के क्रांतिकारी ने जब जज "किंग्जफोर्ड " की हत्या का निश्चय किया (यह निर्णय अरविंदो घोष, चारु घोष और सुबोध मल्लिक ने लिया था ) तब प्रफुल्ल चाकी को ये काम अरविंदो घोष ने सौंपा। लेकिन हेमंतचंद्र दास कानूनगो, की सलाह पर प्रफुल्ल चाकी को एक सहयोगी के रुप में खुदीराम से हेमंतचंद्र बोस के निवास स्थान " मानिकतल्ला " से मिलवाया गया और "किंग्जफोर्ड " की हत्या का काम सौंपा गया। इस दिन से पहले प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम एक दूसरे से कभी नहीं मिले थे। इन दोनों के अंतिम समय तक एक दूसरे के असली नाम तक नहीं पता थे। प्रफुल्ल चाकी को , खुदीराम का नाम " दुर्गादास सेन" और खुदीराम को, प्रफुल्ल चाकी का नाम " दिनेश चंद्र रे " बताया गया था।  प्रफुल्ल, "किंग्जफोर्ड " को मारकर अपने पिता की मृत्यु का बदला लेना चाहते थे। 30 अप्रैल, 1908 की रात साढ़े आठ बजे "किंग्जफोर्ड " की बग्गी पर बम फेंकने ...

प्रफुल्ल चाकी भाग - 2

शिक्षा   प्रफुल्ल की प्रारंभिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई, रंगपुर के " डिस्ट्रिक्ट हाई स्कूल" में पढ़ने लगे। स्कूली शिक्षा के दौरान वह "माधव समिति" के सम्पर्क में आये, जो क्रान्तिकारियों का संगठन था।  उनके प्रभाव में आने के कारण प्रफुल्ल ने विवेकानन्द का पुरा साहित्य और गीता को पढ़ा। वे बंग विभाजन के विद्रोह में होने वाले प्रदर्शनों में तभी से भाग लेने लगे , जब वह केवल दूसरी कक्षा (अब नवीं कक्षा) के विद्यार्थी थे।  विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया।  इसके बाद प्रफुल्ल ने रंगपुर "नेशनल स्कूल" में दाखिला लिया। इस स्कूल में अधिकतर वे विद्यार्थी थे जो अन्य सरकारी स्कूलों से विरोध प्रदर्शन करने पर स्कूलों से निकाल दिए गए थे। 

प्रफुल्ल चाकी भाग - 1

प्रारंभिक जीवन  प्रफुल्ल चाकी का जन्म 10 दिसंबर ,1888 को उत्तरी बंगाल के बिहार गांव में हुआ था। उनका हिंदू कायस्थ परिवार बहुत प्रतिष्ठित था। प्रफुल्ल के पिता का नाम श्री राजनारायण चाकी और माता का नाम स्वर्णमयी देवी था। प्रफुल्ल के पिता राजनारायण, बोगरा नवाब के दरबार में कर्मचारी थे। प्रफुल्ल के बाबा चंद्रनारायण संस्कृत के प्रकांड विद्वान और ज्योतिषी थे, उर्दू, फारसी का उन्हें अच्छा ज्ञान था और एक मुख्तार के रूप में उन्होंने काम किया और अनेक यात्राएं की। प्रफुल्ल के पिता की पहली पत्नी से कोई संतान नहीं थी। उनकी मृत्यु के बाद राजनारायण ने दूसरा विवाह स्वर्णमयी से की। प्रफुल्ल के पिता थोड़े मुखर थे। ब्रिटिश सरकार की बुराई बिना डरे करते थे, जिससे वे खुफिया विभाग के निशाने पर आ गए। एक दिन उन्हें किसी काले कानून में फंसा दिया गया और जज " किंग्जफोर्ड" की अदालत ने उन्हें फांसी की सजा दे दी।

खुदीराम बोस भाग - 8

खुदीराम के जीवन के महत्वपूर्ण तिथियां ! 1) 3 दिसम्बर ,1889 को मिदनापुर जिले के मोहबनी गाँव में जन्म, पिता का नाम त्रैलोक्यनाथ बोस , माता लक्ष्मीप्रिया देवी। 2) 18 अक्टूबर,1895 को माता लक्ष्मीप्रिया देवी का देहांत , पिता ने दुसरा विवाह किया, विवाह के दूसरे सप्ताह के अन्त में ही उनका देहांत।  3) 14 फरवरी 1896 पिता का देहांत, बड़ी बहन अपरूपा और बहनोई अमृतलाल राय के साथ तामलुक जाना। 4) 1902 में , क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ बोस के सम्पर्क में आये और " गुप्त समिति " का कार्य मिदनापुर में शूरू किया। 5) 1904 में सातवीं कक्षा के विद्यार्थी , बहनोई अमृतलाल का तबादला मिदनापुर हो गया, वह सरकारी नौकरी में थे।  खुदीराम का दाखिला " मिदनापुर कॉलेजियट स्कूल" में कराया गया। 6) 1905 में मिदनापुर के जेल में आयोजित कृषि मेले में " वंदे मातरम्" नामक पर्चा वितरित करते समय पुलिस द्वारा पकड़ा जाना, सत्येंद्रनाथ बोस द्वारा बीच बचाव के दौरान भाग निकालना, बाद में अप्रैल में न्यायालय में आत्मसमर्पण।  13 अप्रैल ,1905 को न्यायालय ने बरी कर दिया।  7) 1907 में सत्येंद्रनाथ बोस की सरकारी नौ...

खुदीराम बोस भाग - 7

खुदीराम से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें ! 6) जब खुदीराम से उनकी अंतिम इच्छा पूछी गई , तब खुदीराम ने रात में जेलर द्वारा दिये गये चार आम खाने को कहा। जब सिपाही आम लेकर आया तो उसने कहा ," तुमने रात में जेलर द्वारा दिये आम क्यों नहीं खाये ?"  खुदीराम ने कहा ," मैंने खा लिए है।"  तब सिपाही ने देखा तो आम को खुदीराम ने चूसकर खा लिया था और उसमें हवा भरकर ऐसे रख दिया था , जैसे वह खाया ना गया हो। वहां मौजूद सभी लोग हंस पड़े।   7) जब खुदीराम को फांसी दी गई तब उनकी उम्र केवल 18 वर्ष की थी।  8)" संजीवनी" नामक बंगाली पत्र ने प्रकाशित किया - " खुदीराम पहला बंगाली लड़का था, जिसने राजपुरूष (अंग्रेज) को मारने का प्रयास किया। " 9) खुदीराम की फांसी के बाद 11 अगस्त, 1908 को कलकत्ता सभी विद्यार्थी नंगे पांव स्कूल और कॉलेज गए, अधिकतर " प्रेसीडेंसी कॉलेज" और "जनरल असेंबली कॉलेज" (बाद में स्कॉटिश चर्च कॉलेज) के थे। उन्होंने उस दिन को शोक दिवस के रूप में मनाया।  10) उस समय सुभाष चन्द्र बोस एक छोटी कक्षा के विद्यार्थी थे, जिन्होंने अपने घर में ही उन्हे श्रद्...

खुदीराम बोस भाग - 6

खुदीराम से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें ! 1) खुदीराम से पहले उनके पिता के दो बेटे और हुए थे, पर एक तो जन्म लेते ही गुजर गया और दूसरे की 6 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई।  इसलिए खुदीराम के पैदा होने पर ,उनके पिता को इस बात की चिंता हुई की कहीं उनकेे बेटे के साथ कुछ अनर्थ न हो जाए। तब एक बुजुर्ग महिला "अनुपमा चौधरी" ने कहा," पुराने जमाने में जब ऐसा होता था तो बच्चे को किसी चीज़ के बदले किसी और को बेच दिया जाता था और फिर बच्चे को पालते थे।" इसलिए उनकी बड़ी बहन अपरूपा ने तीन मुट्ठी खुद्दी (चावल के टूटे दाने) में अपने भाई को खरीदा और उसे पाला। 2) मिदनापुर के जंगलों में "कसाई " नदी के किनारे एक शिव मंदिर था। जिसकी मान्यता थी, यदि कोई इस मंदिर में कोई भी कामना की जाय, वह अवश्य ही पूरी होती है। खुदीराम अपने भांजे के साथ इस मंदिर में गए और दो दिनों तक मंदिर के सामने लेटे रहे (मंदिर में लेट कर मन्नत मांगने की प्रथा थी)।  जब सत्येंद्रनाथ को इसकी जानकारी मिली तो, वे वहां गए और देखा कि खुदीराम के शरीर पर कई सांप रेंग रहे थे। उन्होंने खुदीराम को उठाया और उसने पुछा की उनकी कामना...

खुदीराम बोस भाग - 5

गिरफ्तारी 1 मई, 1908 को खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया और 2 मई, 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर के जिलाधीश "वुडमैन " की अदालत में पेश किया गया। खुदीराम ने पूछने पर साफ कहा कि बग्गी पर बम मैने फेंका था। फांसी खुदीराम के बचाव के लिए उपेंद्रसेन नामक बंगाली वकील थे,जो कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले अखबार " बंगाली " के मुजफ्फरपुर के संपादक थे।  अदालत ने खुदीराम की फांसी 6 अगस्त ,1908 को तय कि , पर बाद में इसे 11 अगस्त ,1908 कर दिया गया।   "एच. डबल्यू. कॉनडर्फ " अपर सत्र न्यायाधीश ने खुदीराम को फांसी की सजा बरकरार रखी। खुदीराम को 11 अगस्त ,1908 को सुबह 6 बजे फांसी दी जानी थी लेकिन कारागार के जेलर के मन में खुदीराम के प्रति श्रद्धा और प्रेम जाग रहा था, इसलिए रात्रि में ही (10 अगस्त की रात) चार रसीले आम लाकर उसे भेंट में दिए।  खुदीराम की फांसी के समय सरकार ने दो व्यक्तियों को अनुमति दी थी, उपेंद्रनाथ सेन और क्षेत्रनाथ बनर्जी।  फांसी के तख्ते पर जानें से पहले खुदीराम ने कहा            ," हांसी हांसी चडबो फांसी ,          ...

खुदीराम बोस भाग - 4

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डी. एच. किंग्जफोर्ट  कलकत्ता में " डी. एच. किंग्जफोर्ट " चीफ प्रेजेंसी मजिस्ट्रेट था। उसका कार्यकाल 1904 से 1908 कलकत्ता में रहा। वह स्वभाव से क्रूर था। वह क्रांतिकारियों को कड़ी से कड़ी सजा देता था।  बंगाल में विभाजन के समय जब लोग आंदोलन कर रहे थे जितने भी मुकदमें उसकी अदालत में आते थे, वह भारतीयों को कड़ी सजा देता था। किंग्जफोर्ट कलकत्ता में छपने वाले समाचार पत्रों (युगांतर ,वन्दे मातरम् , सन्ध्या और शक्ति) के पत्रकारों और कर्मचारियों से चिढ़ता था क्योंकि वो सरकार के विरोध में लिखते थे।  वंदे मातरम् के मुख्य संपादक " अरविंदो घोष" को  गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया।  26 अगस्त ,1907 को विपिनचंद्र पाल को किंग्जफोर्ट की अदालत में अरविंदो घोष के खिलाफ गवाही देने के लिए बुलाया गया ,जिससे उन्होंने मना दिया और फोर्ट ने विपिनचंद्र को दो महीने की सजा दे दी। जिस गवाह को पुलिस ने अपनी ओर से बुलाया था ,फोर्ट ने उसे भी दो महीने की सजा दे दी।  इससे अदालत में भगदड़ मच गई और वंदे मातरम् के नारे लगने लगे। जज ने लाठी चार्ज का आदेश दिया। " नेशनल स्कूल " के...

खुदीराम बोस भाग - 3

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  गुप्त समिति   सातवीं कक्षा के बाद खुदीराम ने पढ़ाई छोड़ दी। श्री ज्ञानेंद्र बोस जो कि अध्यापक थे, उन्होंने अपने छोटे भाई का मिदनापुर निवासी सत्येंद्रनाथ बोस से खुदीराम का परिचय कराया। जो क्रांतिकारी संगठन बनाने की कोशिश कर रहे थे।  गुप्त समिति की स्थापना सत्येंद्र बोस ने अनुशीलन समिति की स्थापना की। गुप्त समिति का मुख्य कार्यालय कलकत्ता में था। कुछ समय बाद संगठन के साथ अनेकों प्रसिद्ध क्रांतिकारी जुड़ गए।  स्वामी विवेकानन्द जी की शिष्या भगिनी निवेदिता के आग्रह पर अरविंदो घोष ,जो बड़ौदा में उप प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत थे , इस संगठन के कर्ताधर्ता हो गए। उनके छोटे भाई वरिंद्र कुमार घोष और हेमचंद्र कानूनगो भी इस संगठन से जुड़ गए।  हेमचंद्र ने अपने पुरखों की सारी जमीन बेचकर फ्रांस जाकर बम बनाना सिखा।  सत्येंद्रनाथ बोस ने खुदीराम को एक पिस्तौल भेंट की और उसे चलाना भी सिखाया।  खुदीराम ने अपने कुछ मित्रों को बांकुरा में " छेनदा पठारी " क्षेत्र में गोली, तलवार और चाकू चलाने का प्रशिक्षण दिया। 

खुदीराम बोस भाग - 2

खुदीराम का पहला आरोप सन् 1906 में फरवरी महीने में , मिदनापुर जेल के अहाते में कृषि व बच्चों का मेला लगा था। सत्येंद्रनाथ बोस के कहने पर खुदीराम " गुप्त समिति " के प्रचार के लिए, अंग्रेज सरकार के खिलाफ़ " वन्दे मातरम् " नामक पर्चा छपवाया और खुदीराम को पर्चे को बांटने का काम सौंपा गया।  मेले में जितने लोग आते खुदीराम दौड़कर सभी को पर्चा पकड़ा देते।  मेले के आखिरी दिन मजिस्ट्रेट डी. वेस्टन समापन समारोह में शामिल हुए। उन्हें मेले में आयोजकों को प्रमाण पत्र और पुरस्कार बांटने आये। खुदीराम ने अनजाने में अध्यापक रामचरण सेन को भी पर्चा दे दिया।  रामचरण सेन ने खुदीराम को सरकार विरोधी पर्चा बांटने से मना किया। लेकिन खुदीराम ने उनकी बात नहीं मानी। तब रामचरण ने पुलिस बुलायी खुदीराम को पकड़ने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा खुदीराम ने अंग्रेज़ सिपाही को जोरदार घुसा मारा और वह जमीन पर गिर गया।  सत्येंद्रनाथ एक सरकारी कर्मचारी थे। उन्होंने जाकर खुदीराम को बचाने की कोशिश की पर पुलिस ने उनकी बात पर भरोसा नहीं किया। इतने में खुदीराम वहां से भाग निकले। इसके बाद मजिस्ट्रेट डी. वेस्टन ने सत्ये...

खुदीराम बोस भाग - 1

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  प्रारंभिक जीवन खुदीराम बोस का जन्म 8 दिसम्बर, 1889 को मंगलवार के दिन शाम के 5 बजे, मिदनापुर, कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता का नाम त्रैलोक्य प्रसाद बसु था।  खुदीराम से बड़ी उनकी तीन बहनें और थी। जिनका नाम अपरूपा ,सरोजनी और नैनी बाला था।  बंगाल में बसु को बोस कह कर भी संबोधित किया जाता था।  बाद में खुदीराम के पिता मोहबनी गाँव को छोड़ कर मिदनापुर शहर के हबीबपुर मुहल्ले में आकर बस गए। यहां आकर उन्होंने "नारजोल राजा" के दरबार में तहसीलदार के पद पर कार्यरत हो गए।  इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया देवी से हुआ था, जो केशवपुर थाना के कलाग्राम गाँव के दुखी रामदास की बेटी थी।  खुदीराम की बड़ी बहन अपरूपा का विवाह 1890 में हाटगछीया के 'अमृतलाल ' से हुआ था।  18 अक्टूबर ,1895 में बिमारी के कारण खुदीराम की माता की मृत्यु हो गई।  उनकी माता की मृत्यु के एक वर्ष बाद उनके पिता ने दूसरा विवाह कर लिया और 14 फरवरी ,1896 को बीमारी के कारण उनका भी देहांत हो गया।   पिता की मृत्यु के बाद खुदीराम की बड़ी बहन अपरूपा खुदीराम और छोटी बहन नैनीबाला को अपने साथ अपने ससुराल ले ...

राजगुरू भाग - 3

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  राजगुरु से जुड़ी कुछ बातें ! 1) एक बार बचपन में जब राजगुरु पढ़ाई में ध्यान नहीं देते थे, तब उनके बड़े भाई ने उन्हें धमकी दी की , अगर तुम पढ़ोगे नहीं तो मैं तुम्हे घर से निकाल दूंगा।  2) इस बात से आहत होकर उन्होंने कड़ाके की ठंड के मौसम में घर छोड़ दिया और वृक्षों की छाले ,आम और पत्तियां खाते थे। फिर कई दिनों की यात्रा के बाद वे नाशिक पहुंचे जहां इन्हें एक साधु ने भोजन कराया।  3) बचपन में राजगुरु को आस - पास के लड़के " बापू " कहकर बुलाते थे। 4) इन्हें बचपन से ही व्यायाम और योग करने का बहुत शौक था। बाद में इन्होंने अमरावती व्यायामशाला में उच्च व्यायाम की शिक्षा प्राप्त की।  5) हिन्दुस्तान सेवादल में बहुत समय तक राजगुरु "डॉक्टर हार्डिकर " के साथ रहे।  6) राजगुरु ने नागपुर के एक व्यायामशाला में तलवार, लाठी, गदका , बनैटी और फरी चलाना सीखा।  7) राजगुरू के जन्म के बाद एक पण्डित जी ने उनके पिता को कहा था कि राजगुरू अल्प आयु है। लेकिन राजगुरू की वजह से संसार में आपका नाम बहुत होगा।  8) पुणे से लगभग 15 मील की दूरी पर " चाकण " नामक एक छोटा सा गांव है। छत्रपति श...

राजगुरू भाग - 1

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  प्रारंभिक जीवन राजगुरु का जन्म 24 अगस्त,1908 के दिन सोमवार ,हिंदी पंचांग के अनुसार संवत् 1830 के श्रावण पक्ष की त्रयोदशी को हुआ था।  पुणे के पास खेड़ नामक गांव (वर्तमान में राजगुरु नगर) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिनारायण और माता का नाम पार्वती था। उनके पिता की दो शादियां हुई थी। पहली पत्नि से उन्हें 6 संताने और दूसरी से पांच संताने हुई।  राजगुरु उनकी दुसरी पत्नी की पांचवी संतान थे।  राजगुरु का जन्म सावन के पहले सोमवार के दिन हुआ था। इसलिए उनका नाम  शिवराम हरि राजगुरु  रखा गया। माता पिता उन्हें प्रेम से शिव पुकारा करते थे। राजगुरु जब 6 वर्ष के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया था। शिक्षा राजगुरु ने अपने गांव के एक मराठी स्कूल में पढ़ाई की थी। फिर इन्होंने "न्यू इंग्लिश हाई स्कूल" में पढ़ाई की, जो पुणे में था।  इन्होंने बनारस में तर्कशास्त्र और संस्कृत का अध्ययन किया। कहा जाता है कि राजगुरू ने " सिद्धान्त कौमोदी " को याद कर लिया था।

राजगुरू भाग - 2

  गिरफ्तारी और फांसी  राजगुरू , भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद आदि ने मिलकर स्कॉट वध की योजना बनायी, क्योंकि स्कॉट ने ही साइमन कमिशन के खिलाफ़ होने वाले प्रदर्शन में लाठी चार्ज की आज्ञा दी थी। जिसमें लाला लाजपतराय को निशाना बनाकर जानबूझ कर उन्हें लाठियों से पिटवाया था। जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गई थी। इसलिए क्रान्तिकारियों ने स्कॉट को मारने की योजना बनायी और उसे मारने पहुंचे। भगत सिंह गोली चलाने ही वाले थे कि तभी जल्दी में आगे बढ़कर गोली चला दी। लेकिन बाद में पता लगा कि वो स्कॉट नहीं बल्कि सांडर्स था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली बम धमाके मामले में खुद को गिरफ्तार करवाया। फिर गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ और इसी बीच राजगुरु भी गिरफ्तार कर लिए गए।  17 सितंबर 1928 को किसी व्यक्ति की मुखबिरी से राजगुरू को पुने से गिरफ्तार कर लाहौर लाया गया।   7 अक्टूबर 1930 को राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाई गई। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और सुखदेव के साथ राजगुरू को भी फांसी दे दी गई थी।

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 9

चंद्रशेखर का जवाब, गांधी जी के लेख पर ! चंद्रशेखर आजाद गांधी जी का बहुत सम्मान करते थे और कहते थे कि हम दोनों का रास्ता भले ही अलग हो पर मंजिल एक है। देश को स्वतंत्र कराना। 22 - 23 दिसम्बर 1929 को इर्विन ट्रेन डकैती को आजाद और उसके साथियों ने अंजाम दिया।  इस डकैती के बाद गांधी जी ने अपने साप्ताहिक पत्र " यंग इंडिया " में एक लेख बम पार्टी (cult of the bomb) पर लिखा था। जिसमें उन्होंने क्रांतिकारियों के बारे में बहुत कुछ भला बुरा कहा था और उनको बुजदिल , गुमराह आदि कहा था।  गांधी जी के बम पार्टी (cult of the bomb) का जवाब क्रांतिकारियों ने (Philosophy of the bomb) से दिया। लाहौर में वार्षिक कांग्रेस सेशन में 26 जनवरी ,1930 के दिन पूरे भारत में स्वतंत्रता दिवस की घोषणा की थी। दल ने उसी दिन गांधी जी के बॉम पार्टी का जवाब बॉम दर्शन से देने का निश्चय किया।  26 जनवरी को प्रमुख नगरों में सुबह लोगों के घरों में एक पर्चा पाया गया , जिसका शीर्षक था - " (Philosophy of the bomb) "  उस पर्चे में गांधी जी के लेख का पूरी तरह उत्तर दिया गया था कि गांधी जी अपने अहिंसा के रास्ते की सरा...

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 8

चंद्रशेखर आजाद का शव नहीं देना चाहती थी अंग्रेज सरकार!  चंद्रशेखर आजाद 27 फरवरी ,1931 के दिन इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में आजाद शहीद हुए थे।  जब आखिरी गोली चंद्रशेखर आज़ाद ने अपनी कनपटी पर रख कर चला दी, तब उनका शव जमीन पर गिर गया। लेकिन डर के मारे कोई भी सिपाही आजाद के पास नहीं जाना चाहता था।  क्योंकि उन्हें लगता था कि आजाद कोई चाल चल रहे है। उन सिपाहियों ने आजाद के शव पर कई गोलियां चलायी। आजाद के शरीर का ऐसा कोई ऐसा हिस्सा नहीं था जिसपर गोली ना लगी हो। पण्डित शिवविनायक मिश्र ने बताया है कि ," पंडित जी (आजाद) जब शहीद हो गए, तब रात को एक व्यक्ति मिश्र के घर आया ,जिसे कमला नेहरू जी ने आजाद के शहीद होने का समाचार लेकर भेजा था और शव को लेने के लिए इलाहाबाद बुलाया था।  मिश्र जी ने स्टेशन से एक तार मजिस्ट्रेट (इलाहाबाद) को भेजा। जिसमें लिखा था कि मैं चंद्रशेखर आज़ाद का संबंधी हूं। लाश को डिस्ट्रॉय न किया जाए। मिश्र जी इलाहाबाद पहुंच कर , सीधे मजिस्ट्रेट के बंगले पर पहुंचा। मजिस्ट्रेट ने उन्हें सुप्रिटेंडेंट के पास भेजा दिया । सुप्रिटेंडेंट ने कहा लाश जला दी गई। मिश्र जी ने...

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 6

  जौहरी की दुकान में ठगी  उस समय आजाद दिल्ली में थे। उन्होंने दल के लिए अपने एक मित्र से चार हजार रूपये मांगे पर उनके मित्र के पास पैसे नहीं थे। आजाद के बहुत आग्रह करने पर उनके मित्र ने एक पहचानने वाले से आजाद को चार हजार रुपए दिलवाए , जिसे 6 महिने में वापस करना था।  बहुत कोशिशों के बाद भी जब वापस करने के लिए पैसे का इंतजाम नहीं हो सका, तब आज़ाद और उनके साथियों ने एक जौहरी के दुकान गये। आजाद पहले अंदर चले गए और कुछ देर बाद इशारे से अपने साथियों को भी बुला लिया।  फिर सभी वहां से 15 हजार रूपए लेकर निकल गये। फिर इन्ही रुपयों में से चार हजार रुपए की उधार राशि को वापस किया गया।  गवर्नर का सेकेट्री बनकर ठगी  रात लगभग 9 बजे सेठ दिलसुख राय अपने खातों की जांच कर रहे थे। तभी उनके नौकर ने आकर कहा की कोई साहब आपसे मिलने आए है।  सेठ ने मुनीम को उनसे मिलने को भेजा और मुनीम ने उसने मिलने के बाद लौट कर बताया कि गवर्नर साहब के सैकेट्री आये थे उनके साथ उनका एक बाबू और चपरासी भी था।  वे सभी उसी समय सेठजी से मिलना चाहते थे। सेठ जी तुरन्त उसने मिलने पहुंचे और हाथ जोड़...

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 7

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  चंद्रशेखर आजाद की वीरगति !  चंद्रशेखर आजाद 27 फरवरी ,1931 के दिन इलाहबाद के अल्फ्रेड पार्क में शहीद हुए थे।  आजाद और सुखदेव राज अल्फ्रेड पार्क में भगत सिंह को बचाने की योजना पर बातें कर रहे थे। तभी वहां किसी मुखबिर की मदद से पुलिस आ गई। उस मुखबिर ने आजाद की पहचान करा दी और पुलिस ने पार्क को अंदर और बाहर से घेर लिया।  उसके बाद पुलिस ने गोलियां चलानी शुरू कर दी। आजाद ने सुखदेव को जिद्द करके वहां से भेज दिया और अकेले ही पुलिस की गोलियों का जवाब देने लगे। नॉटबाबर और विशेशर सिंह नामक  सी. आई. डी. अधिकारियों ने आजाद को आत्म समर्पण करने को कहा , पर आजाद ने ऐसा नहीं किया।   आजाद का कहना था कि - उन्होंने अकेले ही अंग्रेज सरकार के 15 सिपाहियों को मार डाला और आखरी गोली अपने ही सर में मार ली और शहीद हो गए।

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 5

एक अचूक निशानेबाज ! एक बार आजाद अपने साथियों भवानी सिंह, रामचन्द्र, मास्टर छैलबिहार लाल और विशंबर दयाल के साथ लैसडाउन गए थे और पहाड़ियों पर उन्हें निशाना लगाने का प्रशिक्षण दे रहे थे।  सभी साथियों को आजाद का निशाना देखने की इच्छा व्यक्त की ,क्योंकि उनका निशाना अचूक था। साथियों ने पेड़ के किसी पत्ते पर निशाना लगाने को कहा। आजाद ने निशाना लगाया और पांच गोलियां चला दी, पर एक भी पत्ता नहीं गिरा। सबको लगा की निशाना चूक गया।  लेकिन जब पास जाकर पत्ता तोड़ा गया, तो उस पत्ते में पांच गोलियों के पांच छेद मौजूद थे। सब उनके निशाने के कायल हो गए। 

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 3

चंद्रशेखर , मठ के महंत के शिष्य बने ! गाजीपुर में साधुओं का एक मठ था। मठ के महंत के पास अपार धन होने की सूचना आज़ाद को मिली थी। महंत बेहद वृद्ध और रोगी थे।  आज़ाद ने अपने साथियों के साथ मिलकर योजना बनायी की क्रांतिकारियों का कोई एक सदस्य उस मठ में महंत जी का शिष्य बनकर जाये और उनकी मृत्यु होने पर वहां से धन लेकर फरार हो जाए। जोकि क्रान्तिकारियों के काम आ सके।  आजाद ने मठ में रहकर वहां महन्त की सेवा की। महन्त की मृत्यु तो नहीं हुई उल्टा आजाद की सेवा से वे स्वस्थ हो गए। तब आजाद ने मठ छोड़ दिया और वापस लौट आए। 

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 4

चंद्रशेखर से आजाद सन् 1921 में महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए आंदोलन में आज़ाद ने भी भाग लिया। वे झण्डा लेकर "गांधी जी की जय " बोलते हुए चल रहे थे और पुलिस द्वारा पकड़े गए। खारेघाट आई. सी. एस. अदालत में उनकी पेशी हुई।  खारेघाट ने उनका नाम पूछा ? तब चन्द्रशेखर ने उत्तर दिया - आज़ाद। पिता का नाम, उन्होंने कहा - स्वाधीन। और रहने का पता जेलखाना। खारेघाट ने इन्हें 15 बेतों की सजा दी। उनको जेल ले जाया गया और (15 बेत = एक डंडा जिसे पानी में भिगो कर रखा जाता था। ) मारी गई। पहले 10 बेतों तक तो वो वन्दे मातरम् कहते रहें, पर 11 वीं बेत से उनके मुंह से गांधी जी की जय निकला।  तभी से उनका नाम चंद्रशेखर आजाद पड़ गया। 

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 2

निर्भीक थे आजाद !  काकोरी काण्ड में भाग लेने वाले सभी लोग पकड़ लिए गए थे ,सिवाय चन्द्रशेखर आजाद और कुंदनलाल के। अंग्रेज सरकार ने इन्हें पकड़ने के लिए इन पर 2000 रुपए का ईनाम रखा था।  चंद्रशेखर ने रामानंद से मोटर ड्राइविंग भी सीख ली और खुद पर 2000 रुपए का ईनाम होने के बाबजूद खुले आम कार चलाने लगे। जब वहां के पुलिस सुप्रिटेंडेंट ने कार या ड्राइवर मांगा तब आज़ाद ही जाते थे। 

चंद्रशेखर तिवारी " आज़ाद " भाग - 1

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प्रारंभिक जीवन चंद्रशेखर आजाद का पूरा नाम चंद्रशेखर तिवारी था।  उनका जन्म भावरा , तहसील अलीराजपुर रियासत में 23 जुलाई , 1906 को ( उनकी माता के कथनानुसार) हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम और माता का नाम जगरानी देवी था। पण्डित जी के पिता की तीन शादियां हुई थी और आजाद अपने पिता की तीसरी पत्नि के संतान थे। उनके पिता अलीराजपुर रियासत में अपने परिवार के साथ रहते थे और नौकरी से रिटायर होकर , 8 रुपए प्रति माह पर ,राज्य उद्यानों के सुप्रीटेंडेंट नियुक्त हो गए थे। शिक्षा आजाद का भावरा के प्राथमिक विद्यालय में दाखिल करा दिया गया। लगभग 14 वर्ष की उम्र में वे बनारस भागकर आ गए।  चन्द्रशेखर आजाद बनारस के विद्यापीठ में हिंदी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त कर रहें थे। बाद के उन्होंने संपूर्णानंद कॉलेज। संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। आज़ाद को मलखम और तीरंदाजी का भी शौक था।