किस श्राप के कारण हुआ था, विदूर जी का जन्म ?

एक बार की बात है माण्डव्य नाम के एक यशश्वी ब्रह्मांड थे। वे बहुत धर्मज्ञ, सत्यवादी, तपस्वी और धैर्यवान थे।


 वे अपने आश्रम के दरवाजे पर वृक्ष के नीचे , हाथ ऊपर करके तपस्या करते थे।
उन्होंने मौन (कुछ भी ना बोलना) का नियम ले रखा था।


एक दिन कुछ लुटेरे लूट का माल लेकर उनके आश्रम में आए। बहुत से सिपाही उनका पीछा कर रहे थे। इसलिए उन चोरों ने माण्डव्य मुनि के आश्रम में लूट का सारा माल छुपा दिया और वहीं छिप गए।


सिपाहियों ने आकर माण्डव्य मुनि से पूछा - कि लुटेरे किधर से भागे ?
जल्दी बताओ हम उनका पीछा करेंगे।

 माण्डव्य ने उनका कोई भी जवाब नहीं दिया। तब सैनिकों ने उनके आश्रम की तलाशी ली और उन्हें धन और चोर दोनों मिल गए।

सिपाहियों ने माण्डव्य मुनि और लुटेरों को पकड़कर राजा के सामने उपस्थित किया।

राजा ने विचार करके सबको सुली पर चढ़ाने का दण्ड दिया।

पहरेदारों ने देखा कि माण्डव्य ऋषि को सुली पर चढ़ाए कई दिन हो गए ,पर वे अभी तक जीवित है।
यह बात सिपाहियों ने जाकर राजा को बताई।

राजा वहां आए और माण्डव्य मुनि से कहा - " मैंने अज्ञानवश बड़ा अपराध किया, मुझे क्षमा कीजिए।"


फिर राजा ने माण्डव्य मुनि को सुली से नीचे उतरवाया। लेकिन बहुत प्रयास करने पर भी सुली ऋषि के शरीर से अलग नहीं हुई तो उसे काट दिया और माण्डव्य ऋषि ने उसी अवस्था में तपस्या की और प्राण त्याग दिए।

मृत्यु के बाद जब वे धर्मराज (यमराज) कि सभा में गए तब उन्होंने पूछा - कि " मेरे किस अपराध की ये सजा मिली।"



तब धर्मराज (यमराज) ने कहा - कि आप ने बचपन में एक फतिंगे के पुंछ में सिंघ गड़ा दी थी। उसी का फल यह है।


माण्डव्य ऋषि ने कहा - बालक 12 वर्ष की आयु तक जो कुछ भी करता है उसे अपराध नहीं कहते। तुमने छोटे अपराध का बड़ा दण्ड दिया है।

इसी कारण माण्डव्य ऋषि ने धर्मराज (यमराज) को मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप दिया।

इसी के कारण धर्मराज ने शूद्र योनि में विदूर के रूप में जन्म लिया।

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