राम प्रसाद "बिस्मिल"भाग - 5

 मातृवेदी की शपथ 

भारतीय जी ने पूरी तरह से जांच परख कर राम प्रसाद को गंगा सिंह चंदेल से मिलवाया। गंगा सिंह उस समय इलाहाबाद में पढ़ते थे, उन्हें भारतीय जी ने शाहजहांपुर बुलाया। उनकी सहमति से राम प्रसाद जी को सन् 1916 में "मातृवेदी" का सक्रिय सदस्य बना लिया। उस समय जो " मातृवेदी " सदस्यता ग्रहण करते थे। उन्हें संस्था की एक शपथ लेनी पड़ती थी। बिस्मिल जी ने भी संस्था के नियम का पालन किया। 


शपथ 

है देश को स्वाधीन करना जन्म मम संसार में।

तत्पर रहूंगा मैं सदा अंग्रेज दल संहार में ।।

अन्याय का बदला चुकाना मुख्य मेरा धर्म है।

मददलन अत्याचारियों का मेरा प्रथम शुचि कर्म है।।

मेरी अनेकों भावनाएं उठ रहीं हृद धाम में।।

स्वाधीनता का मूल्य बढ़कर है सभी संसार से।

बदला चुकेगा हरणकर्ता के रुधिर की धार से।।

अंग्रेज रुधिर की धार से निज पितृगण तर्पण करूं।

अंग्रेज सिर, सहित भक्ति मैं, जननी को अर्पण करूं।।

हो दुष्ट दुशासन - रुधिर स्नान से यह द्रौपदी।

हो सहस्त्रबाहु विनाश से यह रेणुका सुख में पगी।।

है कठिन अत्याचार का ऋण का हमने कठिन प्रण है किया।।

मैं अमर हूं मेरा कभी नाश हो सकता नहीं।

है देह नश्वर, त्राण इसका हो नहीं सकता कहीं।।

होते हमारे मात, जग में पददलित होगी नहीं।

रहते करोड़ों पुत्र के जननी दुखित होगी नहीं।।

आउद्धार हो जब देश का इस क्लेश कारागार से।

भयभीत तब होंगे नहीं हम जेल से , तलवार से।।

रहते हुए तन प्राण, रण से मुख न मोड़ेंगे कभी।

कर शक्ति है जब तक न अपने शस्त्र छोड़ेंगे कभी।।

परतंत्र होकर स्वर्ग के भी वास की इच्छा नहीं।

स्वाधीन होकर नरक में रहना भला उससे कहीं।।

है स्वर्ण पिंजर वास अति दुखपूर्ण सुंदर वीर को।

वह चाहता स्वछंद विचरण अति विपिन गम्भीर को।।

जंजीर की झंकार में शुभ गीत गाए जायेंगे।

तलवार के आघात में निज जय मनाये जायेंगे।।

हे ईश। भारतवर्ष में बार मेरा जन्म हो।

कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।।

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