रामायण का वो योद्धा जिसके माता - पिता अलग - अलग नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति थे।
मेरु पर्वत नाम का एक पर्वत था जो पर्वतों में श्रेष्ठ और सुंदर है। इस पर्वत पर एक दिन ब्रम्हा जी योगाभ्यास कर रहे थे। ब्रम्हा जी के आंखों से आंसू निकले जिसे उन्होंने अपने हाथों से पोंछ दिया और पृथ्वी पर फेंक दिया।
उन आशुओं की दो बूंदों से एक वानर की उत्पत्ति हुई, जिसका नाम ब्रम्हा जी ने ऋक्षराज रखा। वो वानर वहाँ उगे फल फूल खाकर ब्रम्हा जी के साथ वहीं रहने लगा।
वह वानर रोज संध्या के समय फल फूल लाकर ब्रम्हा जी के चरणों में चढ़ा दिया करता।
कुछ समय बाद वानर श्रेष्ठ ऋक्षराज प्यास के कारण मेरु पर्वत के उत्तर शिखर पर चले गए। वहां उन्हें एक तालाब दिखा।
ऋक्षराज उस तालाब के पास गए और पानी पीते समय अपने चेहरे की परछाई पानी में देखी और अपनी परछाई देखकर उन्हें लगा कि वो उसका शत्रु है और वो अपनी ही परछाई से युद्ध करने की इच्छा से पानी में कूद पड़ा।
कुछ देर उछल कूद करने के बाद जब वो बाहर निकला तो वह एक अत्यंत ही रूपवती स्त्री के रूप में परिवर्तित हो चुका था।
संयोग से उसी समय उस पर्वत पर इन्द्र देव और सूर्य देव आ गए। वे उनके इस रूप से अत्यंत मोहित और कामातुर हो गए।
कामातुर होने के कारण देवराज इन्द्र का वीर्य उस सुंदरी के बालों पर गिरा जिससे वालि की उत्पत्ति हुई और सूर्य देव का वीर्य उस स्त्री के गर्दन पर गिरा जिससे सुग्रीव की उत्पत्ति हुई।
वालि के जन्म के बाद इन्द्र देव उन्हें कांचन माला देकर स्वर्ग लोक चले गए और दूसरे दिन सुबह होने के साथ ही ऋक्षराज के फिर से अपने वानर रुप में आ गए।
फिर ऋक्षराज अपने दोनो पुत्रो को लेकर ब्रम्हा जी के पास गए और उनकी आज्ञानुसार किष्किन्धा नगरी में जाकर रहने लगे।
उन आशुओं की दो बूंदों से एक वानर की उत्पत्ति हुई, जिसका नाम ब्रम्हा जी ने ऋक्षराज रखा। वो वानर वहाँ उगे फल फूल खाकर ब्रम्हा जी के साथ वहीं रहने लगा।
वह वानर रोज संध्या के समय फल फूल लाकर ब्रम्हा जी के चरणों में चढ़ा दिया करता।
कुछ समय बाद वानर श्रेष्ठ ऋक्षराज प्यास के कारण मेरु पर्वत के उत्तर शिखर पर चले गए। वहां उन्हें एक तालाब दिखा।
ऋक्षराज उस तालाब के पास गए और पानी पीते समय अपने चेहरे की परछाई पानी में देखी और अपनी परछाई देखकर उन्हें लगा कि वो उसका शत्रु है और वो अपनी ही परछाई से युद्ध करने की इच्छा से पानी में कूद पड़ा।
कुछ देर उछल कूद करने के बाद जब वो बाहर निकला तो वह एक अत्यंत ही रूपवती स्त्री के रूप में परिवर्तित हो चुका था।
संयोग से उसी समय उस पर्वत पर इन्द्र देव और सूर्य देव आ गए। वे उनके इस रूप से अत्यंत मोहित और कामातुर हो गए।
कामातुर होने के कारण देवराज इन्द्र का वीर्य उस सुंदरी के बालों पर गिरा जिससे वालि की उत्पत्ति हुई और सूर्य देव का वीर्य उस स्त्री के गर्दन पर गिरा जिससे सुग्रीव की उत्पत्ति हुई।
वालि के जन्म के बाद इन्द्र देव उन्हें कांचन माला देकर स्वर्ग लोक चले गए और दूसरे दिन सुबह होने के साथ ही ऋक्षराज के फिर से अपने वानर रुप में आ गए।
फिर ऋक्षराज अपने दोनो पुत्रो को लेकर ब्रम्हा जी के पास गए और उनकी आज्ञानुसार किष्किन्धा नगरी में जाकर रहने लगे।

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