भारतीय वैज्ञानिक अरदासिर कुरसेत्जी, एक जहाज डिजाइनर

अरदासिर कुरसेत्जी

बहुत कम भारतवासियों ने ही अरदासिर कुरसेत्जी का नाम सुना होगा।

अरदासिर कुरसेत्जी के परिवार ने एक लंबे अर्से तक अंग्रेजो की जहाज बनाने में मदद थी।


उनके एक पुरखे  लाओजी नुसरवानजी (वाडिया) ने सूरत के बंदरगाह में बढ़ई थे।बाद में अंग्रेज उन्हें नए बंदरगाह का निर्माण करने के लिए  बंबई लाए।

जन्म

अरदासिर कुरसेत्जी का  जन्म लगभग 1808 में हुआ था।
19 वीं शताब्दी के शुरूआत में स्टीम चलित जहाजों का उद्गम हुआ लगभग उसी समय अरदासिर कुरसेत्जी का भी जन्म हुआ।



अरदासिर कुरसेत्जी की रुचि जहाज निर्माण में कम,स्टीम चलित मशीनों में ज्यादा थी।

कार्य और पद

अरदासिर कुरसेत्जी ने ही 1- हॉर्सपॉवर के इंजन का निर्माण कर अपनी कुशलता का परिचय दिया।

 यह भारत में बना पहला इंजन था।

1833 में कुरसेत्जी ने इंग्लैंड से एक 10 - हॉर्सपॉवर का इंजन मंगाया और उसे इंड्स नाम के जहाज में फिट किया।


उसी साल उन्हें मझगांव बंदरगाह में नौकरी मिली।कुरसेत्जी ने अपने घर पर लोहा ढलाई की एक छोटी  "फाउंड्री " स्थापित की। यहां वो जहाजों की टंकियां ढालते थे।

उनका अगला करिश्मा था -  गैस से जलने वाली सड़क बत्ती का निर्माण।





1834 में कुरसेत्जी ने मझगांव स्थित अपने बंगले और बगीचे को बत्तियों से रौशन किया।


जल्द ही उन्हें प्रैक्टिकल क्लासेज लेने के लिए एलीफेंस्टन इंस्टीट्यूट में बुलाया गया। उन्होंने यहां भारतीय छात्रों को यांत्रिकी और रासायनिक विज्ञान सिखाया।


तीन साल बाद कुरसेत्जी इंग्लैंड स्थित रॉयल एशियाटिक सोसायटी के अप्रवासी सदस्य चुने गए।


कुरसेत्जी ने अब एक साल इंग्लैंड में गुजारने की सोची।वहां वो पानी के  जहाजो में लगने वाले इंजनों की नवीनतम जानकारी हासिल करना चाहते थे।

इस यात्रा में कुरसेत्जी अपने नौकरों को भी अपने साथ ले गए थे क्योंकि वे केवल पारसियों के हाथ का बना खाना खाते थे।
धार्मिक मामलों में कुरसेत्जी काफी कट्टरवादी थे।


 इंग्लैंड में कुरसेत्जी को वहां की संसद "हाउस ऑफ कॉमन्स" की बैठक में भी आमंत्रित किया गया।

व्यावसायिक शिक्षण के लिहाज से कुरसेत्जी का यह दौरा बहुत सफल रहा।

वो कई ब्रिटिश नामी गिरामी संस्थाओं के सदस्य भी बने जिसमें - इंस्टीट्यूशन ऑफ सिविल इंजीनियर्स, सोसायटी ऑफ आर्ट्स एंड साइंस और ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस शामिल थी।


वापस लौटने पर कुरसेत्जी की न्युक्ति अंग्रेजों की स्टीम कम्पनी और फाउंड्री में चीफ इंजीनियर और इंस्पेक्टर के
पद पर हुई।


उनकी तनख्वाह 600 रूपए प्रति माह थी जो पहले की तनख्वाह के मुकाबले 6 गुना ज्यादा थी।


1841 में जब कुरसेत्जी इंग्लैंड में थे तब उन्हें प्रख्यात रॉयल सोसायटी फेलोशिप से नवाजा गया। उनका
नाम कई प्रभावशाली लोगों ने प्रस्तावित किया। इनमें से दो लोग बाद में " इंस्टीट्यूशन ऑफ सिविल इंजीनियर्स"के अध्यक बने,एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का चेयरमैन बना और एक अन्य रॉयल सोसायटी अध्यक बना।


रॉयल सोसायटी की वर्तमान में छवि प्रख्यात वैज्ञानिकों के एक संगठन के रूप में है। परन्तु 20 वीं शताब्दी के शुरू में रॉयल सोसायटी में संभ्रांत लोगों का महज एक क्लब था।

यह लोग प्राकृति, गणित और इंजीनियरिंग के अलावा
 "प्रायोगिक " विज्ञान की तमाम शाखाओं में भी रुचि रखते थे।

उस समय के मान्यताओं के अनुसार वहां के समाज ने कुरसेत्जी को एक कुशल इंजीनियर और विज्ञान के प्रसारक के रूप में देखा।


रॉयल सोसायटी की सदस्यता कुरसेत्जी के लिए महज एक व्यक्तिगत उपलब्धि ही रही। इस खिताब से न तो उनके देशवासी प्रभावित हुए और न ही उनकी कोई पेशेवर उन्नति हुई।


बंबई के यह मरीन इंजीनियर 27 मई  1841 को रॉयल सोसायटी के पहले भारतीय सदस्य बने।

रॉयल सोसायटी की अगली फेलोशिप 75 साल बाद प्रख्यात गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन को प्रदान की गई।

 कुरसेत्जी की भारत वापसी

जब 1 अप्रैल 1841 को कुरसेत्जी भारत लौटे तो कई यूरोपियन अफसर उनके अधीन थे। कुरसेत्जी पहले भारतीय थे जिनके नीचे गोरे लोगों ने काम किया।


उनके स्टॉफ में -- चार फोरमैन,100 गोरे बॉयलर- मेकर और इंजीनियर थे। साथ में 200 भारतीय कारीगर भी थे। उनकी नियुक्ति से कई गोरे नाराज भी हुए। 

अंग्रेजो की तरफदारी करने वाले अखबार " बॉम्बे टाइम्स " ने 
अपनी नाराज़गी जाहिर करते हुए लिखा -

 "  चाहे वो कितना भी पढ़ा लिखा और काबिल क्यों न हों फिर भी " बॉम्बे स्ट्रीम " फैक्ट्री जैसी कम्पनी की कमान एक हिंदुस्तानी के हाथ में सौंपना गलत है,एक हिंदुस्तानी बहुत से यूरोपियन लोगों पर नियंत्रण करे यह बात ठीक नहीं है। "


परन्तु कुरसेत्जी ने अपनी इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।
1849 में कुरसेत्जी ने वहां लकड़ी का काम करने वाली कुछ मशीनें खरीदी और बंबई भेजा।


 1851 में कुरसेत्जी ने एक स्टीमर लॉन्च किया जिसका नाम था - लाओजी फैमिली स्टीमर का हर कल - पुर्जा देशी था और कुरसेत्जी के घर में लगे कारखानों में बना था।

 बंबई शहर का परिचय मशीन, फोटोग्राफी और एलक्ट्रो - प्लेटिंग से करने वाले कुरसेत्जी पहले व्यक्ति थे।

1861 में उन्होंने इंड्स फ्लोटिका कम्पनी के चीफ सुपरिटेंडेंट का पद संभाला और इस कंपनी को कोटरी, सिंध स्थित सभी फैक्ट्रियों की बागडोर संभाली।

फ्लोटिका कम्पनी उस समय भारतीय नौसेना के अधीन थी और 1863 में उनका विघटन हुआ।

मृत्यु

कंपनी बंद होने के बाद कुरसेत्जी ने उससे इस्तीफा दिया और उसके बाद वो रिचमंड इंग्लैंड में जाकर बस गए।

जहां 18 नवंबर 1877 को उनका देहांत हो गया।

इतनी उपलब्धियों के बावजूद कुरसेत्जी गुमनाम ही रहे, भारतीय वैज्ञानिक शोध केंद्र को बंबई से हटकर कलकत्ता चला गया।

कलकत्ते के लोगों को कुरसेत्जी के बारे में कुछ पता नहीं था। शायद इसीलिए भारत का पहला आधुनिक इंजीनियर कभी भी हमारे देशवासियों के लिए रोल मॉडल नहीं बन पाया।

 भारत सरकार ने देश के इस महान पुत्र की स्मृति में एक डाक टिकट जरूर जारी किया।

डाक टिकट

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