दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि से क्या माँगा ?

⚜️महाभारत वन पर्व के अनुसार पांडव कौरवों से जुए में हारकर वनवास का जीवन जी रहे थे। 



⚜️अतिथियों को भोजन कराने की सुविधा के लिए सूर्य भगवान ने युधिष्ठिर को ऐसा पात्र दिया था जिससे द्रौपदी भोजन से पूर्व अपने समस्त अतिथियों को भर पेट भोजन करा सकती थी। 


⚜️एकबार महर्षि दुर्वासा दुर्योधन के यहाँ पधारे और दुर्योधन ने उनकी खूब सेवा की। दुर्योधन के आतिथ्य ग्रहण से वे बहुत प्रसन्न हुए।


⚜️तब दुर्योधन ने महर्षि दुर्वासा से यह निवेदन किया कि वन में आप हमारे भाई पांडवों का भी आतिथ्य ग्रहण करें,परन्तु आप वहाँ जाय उस समय जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो।


⚜️महर्षि प्रसन्न थे इसी कारण उन्होंने दुर्योधन का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दुर्योधन यह भली भांति जनता था कि जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न कर लेगी तब तक सूर्य देव द्वारा प्रदत्त पात्र से वे हजारों अतिथियों को भी भोजन कराने में समर्थ हैं।


⚜️जब वह भोजन कर चुकी होगी और महर्षि वहाँ पहुंचेंगे तो उनके लिए भोजन की व्यवस्था करना असम्भव हो जायेगा। जिसके कारण महर्षि निश्चय रुप से उन्हें श्राप दे देंगे। 


⚜️कुछ समय बाद महर्षि दुर्वासा अपने 10,000 शिष्यों सहित काम्यक वन में दोपहर के बाद पांडवों का आतिथ्य ग्रहण करने के लिए पहुँच गए और जाते ही कहने लगे कि हम सब बहुत भूखे है।


⚜️आप हमारे भोजन की व्यवस्था करें,हम निकटवर्ती नदी में स्नान और संध्या वंदन करके आते है। उस समय द्रौपदी ने भोजन कर लिया था। 


⚜️युधिष्ठिर चिंतित हो गए कि अब अतिथियों के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे होगी। महर्षि निश्चित ही हमें श्राप देकर भस्म कर देंगे।


⚜️भगवान कृष्ण ने कुछ देर पहले ही पांडवों से मिलकर द्वारिका के लिए प्रस्थान किया था,द्रौपदी को उन पर पूर्ण विश्वास था। 


⚜️वह अपनी कुटिया में गई और आसन पर बैठकर कृष्ण मंत्र का जाप करने लगी और भगवान से प्रार्थना करने लगी कि एक बार फिर मेरी सहायता करें।


⚜️कृष्ण, वापस लौट आए और सीधे द्रौपदी की कुटिया के पास गए। वहाँ जाकर कहा कि बहुत भूख लगी है जल्दी से कुछ भोजन दे दो।


⚜️ द्रौपदी प्रसन्नता से खिल उठी और कहने लगी महर्षि दुर्वासा को उनके 10,000 शिष्यों सहित भोजन कराना है मैंने भोजन कर लिया है। 


⚜️कृष्ण ने कहा वह पात्र लाओ, उसमें अवश्य कुछ होगा ही,उसी से मेरी तृप्ति हो जाएगी। भगवान ने वह पात्र देखा उसके भीतर एक शाक का पत्ता चिपका हुआ था। 


⚜️वह शाक का पत्ता भगवान कृष्ण ने अपने मुख में डाला और कहा कि इससे विश्वात्मा तृप्त हो जाय और स्वयं डकार ले ली।


⚜️ जब भगवान तृप्त हो गये तब विश्व में और कौन अतृप्त रह सकता है। नदी में स्नान करने वाले दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भी डकार आने लगी।


⚜️उनको ऐसा अनुभव होने लगा कि उन्होंने इतना भर पेट भोजन कर लिया है कि और कुछ भी ग्रहण करने की गुंजाइश नहीं है।


⚜️यदि हम पांडवों के यहाँ वापस लौटे और अन्न को गंवाया तो अम्बरीय की तरह युधिष्ठिर भी हमारी वही गति करेंगे और हमें श्राप देकर नष्ट कर देंगे। 


⚜️महर्षि अपने शिष्यों सहित बिना भोजन किये चले गए। युधिष्ठिर ने उन्हें बुलाने के लिए नदी पर सहदेव को भेजा लेकिन वहाँ कोई दिखाई न दिया। 

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