विष्णु नारायण भातखंडे, कार्य,संगीत विद्यालयों ,पुस्तकें, मृत्यु

प्रारम्भिक जीवन

विष्णुनारायन भातखंडे का जन्म 10 अगस्त सन् 1860 बंबई प्रांत के बालकेश्वर नामक स्थान में कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हुआ था।

संगीत शिक्षा 
उन्हें अपने पिता से जिन्हें संगीत से अथाह प्रेम था,संगीत सीखने की प्रेरणा मिली। वे स्कूली शिक्षा के साथ संगीत शिक्षा भी ग्रहण करते रहे। उन्होंने सितार,गायन और बांसुरी की शिक्षा प्राप्त की और तीनों का अच्छा अभ्यास किया।

सेठ बल्लभदास से सितार और गुरुराव बुआ बेलबाथकर,जयपुर के मुहम्मद अलिखां, ग्वालियर के पंडित एकनाथ,रामपुर के कस्बे अली खां से गायन सीखा।

 सन् 1883 में बी ए और 1890 में एल  एल बी की परीक्षाएं पास की। कुछ समय तक वकालत की , फिर वकालत छोड़ कर संगीत की सेवा में लग गए।


          विष्णुनारायन भातखंडे

कार्य

संगीत के शास्त्रीय पक्ष की ओर संगीतज्ञों का ध्यान आकर्षित करने का श्रेय पंडित जी को है। उनके समय के संगीतज्ञ संगीत शास्त्र पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते थे,गायन वादन में बड़ी विषमताएं आ गई थी।

उन्होंने देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया और संगीत के प्राचीन ग्रंथो की खोज की। यात्रा में जहां भी कोई विद्वानों से मिले और जो कुछ भी ज्ञान धन देकर,सेवा कर या शिष्य बनकर भी प्राप्त किया।

उन्होंने विभिन्न रागों के बहुत से गीत एकत्रित किए और उनकी स्वरलिपी हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, क्रमिक पुस्तक मालिका 6 भागों में संग्रह कर के रख दिया।

उस समय किसी व्यक्ति को केवल एक गीत सीखने के लिए सालों तक अपने गुरु की सेवा करनी पड़ती थी,ऐसे समय में क्रमिक पुस्तकों से संगीत के विद्यार्थियों और शिक्षकों को बहुत लाभ हुआ।

क्रियात्मक संगीत को लिपिबद्ध करने के लिए भातखंडे जी ने एक सरल और नवीन स्वरलिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। यह बाकी की तुलना में सरल और सुबोध है।

राग वर्गीकरण का एक नवीन प्रकार -थाट राग वर्गीकरण को प्रचारित करने का श्रेय भातखंडे जी को जाता है। उन्होंने वैज्ञानिक ढंग से समस्त रागों को 10 थाटों में विभाजित किया। उनके समय में राग - रागिनी प्रचलित थी।

उन्होंने उनकी कमियों को समझा और उनके जगह पर थाट का प्रचार किया , काफी के स्थान पर बिलावल को शुद्ध थाट माना।

जिस समय भारत में रेडियो, टीवी, टेप रिकॉर्डर नहीं थे ,उस समय भातखंडे जी ने संगीत के प्रचार के लिए संगीत सम्मेलनों की जरूरत समझी और सन् 1916 में बड़ौदा नरेश की सहायता से पहला संगीत सम्मेलन सफलतापूर्वक आयोजित किया।

उस सम्मेलन में अखिल भारतीय संगीत अकादमी स्थापित करने का प्रस्ताव सबकी सहमति से पास हुआ। जल्दी ही उसकी स्थापना हुई,लेकिन ज्यादा समय तक काम न कर सकी। सन् 1925 तक  उन्होंने 5 वृहद संगीत सम्मेलन आयोजित किए। उनके प्रयत्न से कई संगीत विद्यालयों की स्थापना हुई।

उनमें से मुख्य हैं -

1) मैरिस म्यूजिक कॉलेेज (नया नाम -भातखंडे संगीत महाविद्यालय लखनऊ)

2) माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर

3) म्यूसिक कॉलेज बडौदा ।

उनके द्वारा रचित कुछ पुस्तकें -

1) हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति  (क्रमिक पुस्तक मालिका 6 भागों में)

 2) भातखंडे संगीत शास्त्र 4 भागों में

3) अभिनव राग मंजरी

4) लक्ष्य संगीत                                 

5) स्वरमालिका


मृत्यु

जीवन भर संगीत की सेवा करते रहे और 19 सितम्बर 1926 को उनकी मृत्यु हो गई।

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