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Showing posts from December, 2025

बेगम हजरत महल

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(1820 - 1879) नवाब वाजिद अली शाह की 36 वीं बेगम  प्रारंभिक जीवन इनका जन्म 1820 में अवध प्रांत के फैजाबाद जिले के एक छोटे से गांव में बेहद गरीब परिवार में हुआ था। बचपन में इन्हें मुहम्मद खातून (मुहम्मद खानम) या उमराव कहते थे। पिता मजरुद्दीन थे,जो फर्रुखाबाद के नवाब गुलाम हुसैन के सेनापति और इनकी मां महर अफसा नेपालशाही सेना के सेमापति की बेटी थी। इनके माता - पिता का देहांत चेचक के कारण हो गया था। इसके बाद इनकी बुआ ने इन्हें बेच दिया था।  विवाह   इनका विवाह वाजिद अली शाह से हुआ था।  शादी के बाद इन्हें नवाब ने महक परी बेगम की पदवी दी गई।  1846 में बेटे के जन्म के बाद इन्हें  इत्तेखार उल्लीसा बेगम  की पदवी और  बेगम हजरत महल  का नाम भी वाजिद अली ने दिया।  रमजान में पैदा होने के कारण इनके बेटे को रमजान कहा गया, लेकिन वाजिद अली ने अपने बेटे का नाम मिर्जा बिरजिसकद्र रखा।  बेगम की महिला सैनिक दल बेगम हजरत महल के सैनिक दल में कई महिलाएं भी शामिल थी जिसका नेतृत्व रहीमी बी करती थी। इनका साथ देने वाली अन्य विरांगाएं रनवीरी वाल्मीकि, सहेजा वाल्मीक...

सौ अश्वमेध यज्ञ

 ✳️मनु वंशी कृशाश्व के सोमदत्त नामक पुत्र हुआ, जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उससे जनमेजय हुआ और जनमेजय से सुमति का जन्म हुआ। ये सभी विशालवंशीय राजा हुए।  ✳️राजा पृथु ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ का आयोजन का निश्चय किया। ✳️राजा युवनाश्व ने 1000 अश्वमेध यज्ञ किये थे।  ✳️इक्ष्वाकु के पुत्र निमी ने एक सहस्त्र वर्ष में समाप्त होने वाले यज्ञ का आरंभ कि या ।

पार्वती गिरी (1926 - 1995)

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  जिन्हें उड़ीसा की मदर टेरेसा भी कहा जाता था।  प्रारंभिक जीवन  इनका जन्म 19 जनवरी,1926 को ओडिशा के संबलपुर जिले के " समवाईपदार गांव"  में हुआ था।  इनके पिता धनंजय गिरी गांव के प्रमुख और उनके चाचा कांग्रेस के नेता थे। इस कारण स्वतंत्रता सेनानी उनके घर अक्सर आते थे। इसी कारण उनके अंदर भारत को आजादी दिलाने की बात छोटी सी उम्र में ही, उनके मन में घर कर गई।  उनकी प्रारंभिक शिक्षा केवल तीसरी कक्षा तक हुई थी।  स्वतंत्रता आंदोलन उन्हें ब्रिटिश सरकार विरोधी गतिविधियों और बरगढ़ की अदालत में सरकारी विरोधी नारे लगाने की वजह से दो साल की जेल हुई, लेकिन नाबालिक होने की वजह से उन्हें छोड़ दिया। एक समाजसेविका भारत के आजाद होने के बाद 1950 में पार्वती ने अपनी बची हुई स्कूली शिक्षा  इलाहाबाद के प्रयाग महिला विद्यापीठ  से पूरी की। इसके बाद पार्वती 1954 में रमा देवी के साथ राहत कार्यों में भाग लेने लगी। 1955 में संबलपुर जिले में रहने वाले लोगों के स्वास्थ और स्वच्छता में सुधार करने के लिए अमेरिकी परियोजना से जुड़ी। इसके बाद पार्वती ने अनाथ बच्चों के लिए " ...

इंद्र देव ने घोड़े की चोरी क्यों की ?

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महाराज वेन देवताओं में विश्वास नहीं करते थे। इसलिए बहुत समझाने पर भी उन्होंने यज्ञ की अनुमति नहीं दी। जिसके बाद ऋषियों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया जिससे उनके पुत्र पृथु की उत्पत्ति हुई। जहाँ पश्चिम वाहिनी गंगा प्रवाहित होती है वहाँ ब्रह्मा और मनु का ब्रह्मवैवर्त क्षेत्र है। वहाँ राजा पृथु ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ का आयोजन का निश्चय किया।  देवराज इंद्र को भय हुआ कि यदि ये यज्ञ संपन्न हो गया तो मेरा सिंहासन पर रहना संभव नहीं हो पाएगा।  इंद्र ने यज्ञ को भंग करने की योजना बनायी और जब पृथु का 100 वां यज्ञ हो रहा था तब इंद्र ने वेश बदल कर दान के लिए रखे, एक अश्व को चुरा लिया। तब पृथु के पुत्र ने इंद्र का पीछा किया और अश्व को वापस ले आए, लेकिन इंद्र ने फिर से अश्व को चुराने की कोशिश की। इससे क्रोधित होकर पृथु ने इंद्र को मारने के लिए धनुष उठा लिया तब ऋषियों ने उनसे कहा कि यदि आप बाण चलाएंगे तब देवराज के साथ पूरा देवलोक भी नष्ट हो जाएगा।  हम यज्ञ द्वारा ही इंद्र को बुलाकर इसी अग्नि में भस्म कर सकते है और उन्होंने ऐसा ही किया। लेकिन जैसे ही इंद्र अग्नि कुंड में प्रवेश करता ब्रह्मा ...

विश्व के सभी साँपों को मारने के लिए यज्ञ किसने किया ?

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महाभारत के वन पर्व में जनमेजय सर्प यज्ञ की कथा का वर्णन है। श्रृंगी ऋषि ने परीक्षित को श्राप दिया कि तक्षक नाग क्रोध करके अपने विष से सात दिन के भीतर ही जला देगा। ऋषि पुत्र के श्राप के कारण तक्षक नाग ने परीक्षित को काटा और उनकी मृत्यु हो गई।  परीक्षित ने अपनी मृत्यु से पहले शुकदेव जी से सात दिन तक भागवत कथा सुनी। उन्हें तो ऋषि पुत्र या नाग जाती से कोई द्वेष न था, उन्होंने तो यह समझा कि जैसे कर्म मैंने किया है, उसी के अनुरुप फल मुझे मिल गया है।  इसमें किसी दूसरे का दोष नहीं है लेकिन परीक्षित के पुत्र जनमेजय इस विचार धारा से सहमत नहीं थे। उन्होंने समस्त नाग जाति का समूल नाश करने के लिए सर्प यज्ञ करवाया। ऋषियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि इस यज्ञ के मंत्रों से विश्व के हर कोने से सर्पो को आकर्षित करके हवन कुंड में भस्म किया का जा सकता है। जनमेजय का तांत्रिक सर्प यज्ञ आरंभ हो गया, अभिचारिक कर्म के नियमों का पालन करते हुए ऋत्विक काले वस्त्र ग्रहण किए हुए थे, धुएं से उनके नेत्र रक्त वर्ण से हो रहे थे। अग्नि में विधि विधान के अनुसार आहुतियाँ दी जाने लगी उससे प्रभावित होकर सर्पों के मन ...

पांडवों को हजारों को भोजन कराने वाला पात्र किसने दिया ?

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💠महाभारत वन पर्व के अनुसार जब पांडवों को वनवास हुआ और वे वन में जाकर रहने की तैयारी करने लगे तब प्रेम वश नगर वासी उनके साथ जाकर रहने को तैयार थे।  💠तब उन्होंने अधिकांश प्रजा को समझा बुझा कर वापस भेज दिया,परन्तु शौनक आदि ब्राह्मण किसी भी प्रकार लौटने के लिए तैयार न हुए। 💠पांडव उनके भोजन की व्यवस्था कैसे करें, ये समस्या लेकर युधिष्ठिर धौम्य ऋषि के पास गए और कहा कि इतने लंबे समय तक इन सभी के भोजन की व्यवस्था कैसे हो पाएगी।  💠तब धौम्य ऋषि ने कहा कि जब - जब भी प्रजा पर अन्न संबंधी कष्ट आए है, उसे सूर्य भगवान की आराधना से दूर किया जा सका है। 💠धौम्य ऋषि ने युधिष्ठिर को मंत्र के साथ "सूर्याष्टोतरशतनाम स्त्रोत " का पाठ करने की प्रेरणा दी। ये स्त्रोत नृसिंह पुराण, अध्याय 20, स्कंद, कुमारि० ४२, ब्रह्मपुराण तथा महा०, वन० ३/१६ - २८ में वर्णित है।  💠युधिष्ठिर की उपासना से भगवान सूर्य प्रसन्न हुए और एक तांबें का परोसने वाला पात्र उन्हें दिया और कहा कि जब तक द्रौपदी स्वयं बिना खाए हुए इस पात्र से परोसती रहेगी, तब तक हजारों व्यक्तियों के लिए भी यह भोज्य पदार्थों का भंडार प्रस्तुत कर...

दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि से क्या माँगा ?

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⚜️महाभारत वन पर्व के अनुसार पांडव कौरवों से जुए में हारकर वनवास का जीवन जी रहे थे।  ⚜️अतिथियों को भोजन कराने की सुविधा के लिए सूर्य भगवान ने युधिष्ठिर को ऐसा पात्र दिया था जिससे द्रौपदी भोजन से पूर्व अपने समस्त अतिथियों को भर पेट भोजन करा सकती थी।  ⚜️एकबार महर्षि दुर्वासा दुर्योधन के यहाँ पधारे और दुर्योधन ने उनकी खूब सेवा की। दुर्योधन के आतिथ्य ग्रहण से वे बहुत प्रसन्न हुए। ⚜️तब दुर्योधन ने महर्षि दुर्वासा से यह निवेदन किया कि वन में आप हमारे भाई पांडवों का भी आतिथ्य ग्रहण करें,परन्तु  आप वहाँ जाय उस समय जब द्रौपदी भोजन कर चुकी हो। ⚜️महर्षि प्रसन्न थे इसी कारण उन्होंने दुर्योधन का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।  दुर्योधन यह भली भांति जनता था कि जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न कर लेगी तब तक सूर्य देव द्वारा प्रदत्त पात्र से वे हजारों अतिथियों को भी भोजन कराने में समर्थ हैं। ⚜️जब वह भोजन कर चुकी होगी और महर्षि वहाँ पहुंचेंगे तो उनके लिए भोजन की व्यवस्था करना असम्भव हो जायेगा। जिसके कारण महर्षि निश्चय रुप से उन्हें श्राप दे देंगे।  ⚜️कुछ समय बाद महर्षि दुर्वासा अपने 10,0...