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Showing posts from July, 2021

शचींद्रनाथ सान्याल भाग - 4

  काला पानी की सजा  पहली बार जब उन्हें " काला पानी " की सजा हुई, तब 1937 में संयुक्त प्रदेश में कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना के बाद बाकी क्रांतिकारियों के साथ वह रिहा कर दिये गये। रिहा होने पर कुछ दिनों तक वे कांग्रेस के प्रतिनिधि थे, लेकिन बाद में वह फॉरवर्ड ब्लॉक में शामिल हुए। इसी समय काशी में उन्होंने "अग्रगामी " नाम से एक दैनिक पत्र निकाला। वे खुद इसके संपादक थे।  द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने से पहले 1940 में शचींद्रनाथ को " कालेपानी " की सजा दे दी गई। उनकी दूसरी जेल यात्रा के दौरान उन्हें टीबी हो गया और 1942 में उनकी मौत हो गई।

शचींद्रनाथ सान्याल भाग - 3

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  क्रांतिकारी गतिविधियां शचींद्रनाथ सान्याल कई क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे ,जैसे - 1912 में अंग्रेज़ी वायसराय लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंकना, 1915 की ग़दर क्रान्ति ,राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खान के साथ काकोरी काण्ड में ,चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच. आर. ए.) का गठन। सान्याल ने राइट टू रिकॉल  का विचार दिया  , जिसका अर्थ है - " आपके चुने हुए मंत्री अगर आपकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते हैं, तो उनका कार्यकाल खत्म होने से पहले ही उनको वोटिंग के जरिए पद से हटाने का अधिकार था।" "द रिवोल्यूशनरी " नाम से छापे जाने वाले उनके संगठन का घोषणा पत्र बांटते समय बांकुरा में सान्याल जी को गिरफ्तार कर लिया और दो साल की सजा दी गई। काकोरी काण्ड में शामिल होने के कारण सान्याल जी को काला पानी की सजा हुई। शचींद्रनाथ सान्याल गांधी जी के अहिंसावादी विचार के सख्त विरोधी थे। 

शचींद्रनाथ सान्याल भाग - 2

1912 में जब वायसराय " हार्डी " के ऊपर बम फेंके जाने की घटना हुई थी,तब शचींद्रनाथ की मुलाकात रासबिहारी बोस से हुई।  रासबिहारी ,शचींद्रनाथ से काफी प्रभावित थे और उनके साथ बनारस आ गए। उसी समय सैनफ्रांसिसको में बनी  ग़दर पार्टी  भारत में एक सेना क्रान्ति की योजना बनायी है। उस योजना के तहत  ग़दर पार्टी  के कई सदस्य बनारस चले आये और यहां पर ग़दर पार्टी को रासबिहारी और शचींद्रनाथ का सहयोग मिला। सेना क्रान्ति करने का दिन 21 फरवरी ,1915 को तय हुआ, पर बाद में इसे 19 फरवरी कर दिया गया। लेकिन इस योजना की जानकारी किसी ने अंग्रेज सरकार को दे दी, जिसके कारण ये असफल हो गई।

शचींद्रनाथ सान्याल भाग - 1

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  प्रारंभिक जीवन   शचींद्रनाथ सान्याल का जन्म 3 जून ,1893 को बनारस में हुआ था। उनके पिता का नाम हरिनाथ सान्याल और मां का नाम क्षीरोदाबासनी देवी था।  जब उनकी उम्र 15 साल की थी, तब उनके पिता का देहांत हो गया।  उनके भाई जतीन्द्रनाथ दास और भूपेंद्रनाथ भी जाने माने क्रांतिकारी थे।  उनकी प्रारंभिक शिक्षा क्वींस कॉलेज , बनारस में हुई थी।  अनुशीलन समिती 1902 में सतीशचंद बसु द्वारा बनायी गई , अनुशीलन समिती जो भारतीय क्रांतिकारियों का एक प्रमुख दल था।  बनारस में ढाका अनुशीलन समिती की स्थापना की गई। अंग्रेज सरकार ने इनका नाम यंग मैन एसोसिएशन  रखा गया। इसमें शारीरिक विकास के लिए खेलकूद आदि कराया जाता था। इसके माध्यम से वह युवाओं को क्रांतिकारी बनाना चाहते थे।  इस समिति को चलाने के कारण, अंग्रेज सरकार द्वारा शचींद्रनाथ सान्याल को कई तरह से परेशान किया जाता था।

मौलाना महमूद हसन

1) कुछ लेखों के अनुसार  मौलाना महमूद हसन  के जन्म की तारीख की सही जानकारी तो नहीं है, लेकिन सन् 1851 में इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ बताया गया है। 2) इनके पिता मौलाना मुहम्मद जुल्फिकार अली अरबी भाषा के प्रसिद्ध विद्वान थे। एक इस्लामिक शिक्षा संस्था दारुल उलम देवबंद के पहले छात्र थे।  1873 में दारुल उलूम से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद ,1874 में वहीं अध्यापक न्युक्त हो गए और 1915 तक वे यहां कार्यरत रहे। 3) मौलाना महमूद हसन एक प्रसिद्ध शिक्षक, समाज सुधारक और राजनीतिक कार्यकर्ता थे। इन्होंने देवबंद से ताल्लुक रखने वाले कई लोगों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। महमूद हसन की संस्था जब मौलाना महमूद हसन " दारुल उलूम" में अध्यापक थे , तब उन्होंने " समरातुल तरबिया " नामक एक संस्था बनायी थी। जिसका उद्देश्य अपने छात्रों को भारतीय स्वतंत्रता के संघर्ष में अपना योगदान देना। 1909 में इसका " जामियातुल अंसार " नाम से पुनर्गठन किया गया और "मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी " को इसका प्रबंधक नियुक्त किया गया। रणनीति...

मन्मथनाथ गुप्त भाग - 2

1) गुप्त जी मात्र 13 साल की उम्र से ही स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए और जेल भी गए।  2) वे हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य भी बने।  3) साल 1921 में जब प्रिंस एडवर्ड बनारस आये ,तब क्रांतिकारी चाहते थे कि बनारस के महाराजा उनका बहिष्कार करें। इसलिए मन्मथनाथ जी भी लोगों को जागरूक करने के लिए पर्चे बांटे जिसकी वजह से उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 3 महीने की सजा सुना दी गई। 4) 17 साल की उम्र में उन्होंने काकोरी काण्ड में भी भाग लिया। उनकी वजह से एक रेल यात्री की मृत्यु हो गई थी। जिसकी वजह से उन्हें 14 साल का कारावास हुआ।  5) 1937 में जेल से रिहा होने के बाद ,गुप्त जी क्रान्तिकारी लेख लिखने लगे। जिसके कारण उन्हें 1939 में फिर से कारावास की सजा सुना दी गई।  6) देश के स्वतन्त्र होने से 1 वर्ष पहले तक वे जेल में रहे।  मन्मथनाथ गुप्त जी की लिखीं पुस्तकें 1) गुप्त जी ने लगभग 80 पुस्तकें लिखी। उपन्यास " बहता पानी " 1955 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास क्रांतिकारी चरित्रों पर केंद्रित था।  2) स्वतंत्रता के बाद " योजना " , " बाल भारती " और "आज कल ...

मन्मथनाथ गुप्त भाग - 1

  प्रारंभिक जीवन  मन्मथनाथ गुप्त का जन्म 7 फरवरी ,1908 में वाराणसी में हुआ था।  उनके दादा 1880 में ही बंगाल छोड़कर बनारस आ गए थे। मन्मथनाथ गुप्त जी के पिता का नाम वीरेश्वर गुप्त था।  उनके पिता पहले नेपाल के विराट नगर में प्रधानाध्यापक थे, बाद में वे बनारस आ गए।  शिक्षा   मन्मथनाथ गुप्त की की शिक्षा दो वर्ष तक नेपाल में हुई, फिर काशी विद्यापीठ में हुई।

डॉक्टर मथुरासिंह भाग - 3

  गिरफ्तारी और फांसी बाद में मथुरासिंह जी को पंजाब भेज दिया गया।  मथुरासिंह जी बम बनाने में माहिर थे। पूरे भारत में एक संगठन तैयार हुआ और विद्रोह खड़ा करने की योजना थी। लेकिन संगठन के गद्दार " कृपाल " के कारण अंग्रेज सरकार को पता चल गया और धर पकड़ शुरू हो गई। लेकिन मथुरासिंह जी पकड़े नहीं गए। इसके बाद मथुरासिंह जी काबुल की ओर गये ,"वजीराबाद" स्टेशन पर पुलिस ने इन्हें पकड़ लिया, पर वहां कुछ घूस देकर वे बच निकले। काबुल जानें के बाद उन्हें वहां का " चीफ मेडीकल ऑफिसर " नियुक्त किया गया। बाद में उन्हें किसी की मुखबिरी के कारण " ताशकंद" में गिरफ्तार कर लिया गया। फिर इनके ऊपर मुकदमा चला और मृत्यु दण्ड सुनाया गया और 27 मार्च 1917 को इन्हें फांसी दे दी गई।  

डॉक्टर मथुरासिंह भाग - 2

1913 में मथुरासिंह भारत से चले गये,पर धन की कमी के कारण इनको " शंघाई " में ही रुकना पड़ा। वहीं पर इन्होंने चिकित्सा कार्य शुरू किया, जिसमें मथुरासिंह जी काफी सफल रहें।  मथुरासिंह कुछ और भारतीयों के साथ कैनेडा गए,पर इमिग्रेशन विभाग से अपने साथियों को न आने देने के लिए बहस हुई और मुकदमा भी चला। लेकिन सरकार ने कहा कि "क्योंकि वे कैनेडा में किसी जहाज द्वारा सीधे नहीं आए है।" फिर मथुरासिंह शंघाई लौट आए। उन्होंने बाबा गुरुदत्तसिंह को एक अपना जहाज बनाने की सलाह दी, जो सीधे कैनेडा जाये। इसी सलाह से गुरुदत्तसिंह जी ने एक " कामागाटामारु " जहाज किराये पर ले लिया और उसका नाम " गुरु नानक " जहाज रखा। किसी कारण मथुरासिंह जी को पंजाब जाना पड़ा। सिंगापुर से ,लगभग 35 साथियों के साथ, दूसरे जहाज से चले, ताकि शंघाई तक " कामागाटामारु " जहाज मिलकर उस पर सवार हो। हांगकांग पहुंचने पर पता चला कि जहाज वहां से भी जा चुका है और मथुरासिंह वहीं ठहर गए।  मथुरासिंह "हांगकांग" में प्रचार का कार्य शुरू किया। अमेरिका से गदर पार्टी का गदर अखबार आता था। इन्होंने...

डॉक्टर मथुरासिंह भाग - 1

भगत सिंह के के द्वारा फरवरी, 1928 में लिखे शहीदों के जीवन परिचय के अनुसार - डॉक्टर मथुरासिंह का जन्म सन् 1883 ई. में ढूंढियाल नामक गांव के, जिला झेलम (पंजाब) में हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार हरिसिंह था।  शिक्षा   इनकी शुरुआती शिक्षा इनके गांव में ही हुई, इसके बाद वे चकवाल के हाई स्कूल में पढ़ने लगे। यह अपने सहपाठियों से हमेशा अच्छा व्यवहार करते थे।  हाई स्कूल के बाद वे प्राइवेट तौर पर डॉक्टरी का काम सीखने लगे।  मैसर्स जगतसिंह एण्ड ब्रदर्स की दुकान रावलपिंडी में थी। वहीं पर मथुरासिंह जी ने यह काम सीखना शुरू किया। तीन - चार साल के परिश्रम के बाद वह इस कार्य में प्रवीण हो गए और नौशेरा छावनी में एक दुकान खोल ली।  मथुरासिंह सभी देशाें से चिकित्सा संबंधी पत्र - पत्रिकाएं मंगवाकर पढ़ा करते थे। वे आगे पढ़ने के लिए अमेरिका जाना चाहते थे। तभी इनकी पत्नी और पुत्री का देहांत हो गया। 

बलवंत सिंह भाग - 2

  कैनेडा में शव जलाने का प्रबंध उस समय कैनेडा के प्रवासी हिंदुओं और सिक्खों को मृतक - संस्कार करने में बड़ी विपत्ति होती थी। मुर्दे जलाने की उन्हें आज्ञा नहीं थी। ऐसी अवस्था में उन लोगों को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता था।  कई बार उन्हें बारिश में, बर्फ में, शवों को जंगल में ले जाकर , कुछ लकड़ियों को इकठ्ठा करके, तेल डालकर आग लगाकर भागना पड़ता था। ऐसी स्थिति में भी कैनेडियन लोगों की गोली का निशाना बनने का डर रहता था।  बलवंत सिंह जी ने यह असुविधा दूर करने के लिए ,कुछ जमीन खरीद ली और दाह संस्कार करने की आज्ञा भी ले ली।  गुरूद्वारा बलवंत सिंह जी के ही परिश्रम से बना था ,इसलिए सभी ने मिलकर उन्हें ही ग्रंथी बनाने का निश्चय किया। पहले तो इन्होंने मना किया, पर फिर स्वीकार कर लिया।  पहला गुरुद्वारा कैनेडा में जाकर बलवंत सिंह जी अपने दूसरे साथी भागसिंह जी से मिलकर गुरुद्वारा बनाने का काम शुरू किया। बैंकोवर में ही इनके प्रयत्न से अमेरिका का सबसे पहला गुरुद्वारा स्थापित हुआ। 

बलवंत सिंह भाग - 1

भगत सिंह के के द्वारा फरवरी, 1928 में लिखे शहीदों के जीवन परिचय के अनुसार - बलवंत सिंह का जन्म गांव खुर्दपुर , जिला जलांधर में पहली आश्विन ,संवत् 1939 विक्रम शुक्रवार को हुआ था। इनके पिता का नाम सरदार बुद्धसिंह था। इनका परिवार काफी धनी था।  शिक्षा   बलवंत सिंह का दाखिला आदमपुर कमिडिल स्कूल में कराया गया। पढ़ाई के दौरान ही इनका विवाह हो गया और जल्द ही इनकी पत्नी का स्वर्गवास भी हो गया। मिडिल पास किए बिना ही इन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और फौज में भर्ती हो गए। इनकी पलटन में इनका संपर्क कर्मसिंह जी से हुआ। उनकी संगति में बलवंत सिंह जी का ईश्वर भजन की ओर झुकाव हो गया। इसी दौरान उनका दुसरा विवाह हुआ। उन्होंने दस साल तक नौकरी की, फिर अचानक से नौकरी छोड़कर गांव लौट आए।  गांव लौटकर ,वहीं की एक गुफा में बंद रहकर भजन कीर्तन में तल्लीन रहने लगे। 11 महिने तक वहीं रहने के बाद बाहर आते ही सन् 1905 में कैनेडा चले गए। फांसी   1916 में बलवंत सिंह जी को लाहौर षड्यंत्र के दूसरे  अभियोग शामिल किया गया, इन पर विद्रोह का आरोप लगाया गया और इन्हें फांसी की सजा सुना दी गई।