प्राचीन भारत के , आधुनिक यंत्र
1) दुर्विक्षण यंत्र (दूरबीन )
एक प्राचिन यांत्रिक ग्रंथ शिल्पसंहिता दुर्विक्षण यंत्र (दूरबीन ) का उल्लेख इस प्रकार है -
मनोवाक्यं समाधाय तेन शिलपीन्द्र शाश्वत: ।
यंत्र चकार सहसा दृष्टथर्य दूरदर्शनम् ।।
पललाग्नो दग्धमृदा कृत्बा काचमनश्ववर ।
शोधयित्या तु शिलपीद्रो नैमत्य कीयते च ।।
चकार बलवतत्स्वच्छं पातनं सुपबिकृतम् ।
वंशपर्वसमाकारं धातुदण्ड - कल्पितम् ।।
तत्पश्पापदंग्रमध्येषु मुकुरं बिवेश स:।
इसका मतलब है कि " मिट्टी भून के उससे प्रथम कांच बनती है। एक पोली नलिका के दोनों नुक्कड़ पर वह कांच लगायी जाती है। दूर के नक्षत्रादि देखने में तुरी यंत्र में जैसा इसका उपयोग किया जाता है।
2) बैटरी अर्थात शतकुम्भी
3) तपमापन यंत्र (थर्मामीटर)
गुजरात के अन्हिलपुर नगर के जैन ग्रंथालय में संस्कृत भाषा का " शिल्पसंहिता " नाम का ग्रंथ है। जिसमें ध्रुव मत्स्य यंत्र बनाने की विधि लिखी है। पारा, सूत्र,तेल और जल आदि सामग्री लेकर तपमापन यंत्र (थर्मामीटर ) बनाने की पद्धति भी उसमें वर्णित है।
" सिद्धान्त शिरोमणि " नामक दूसरे प्राचीन ग्रन्थ में भी एक तपमापन यंत्र का वर्णन है।
4) चुंबक
"वैशेषिक " नामक ग्रंथ में एक प्राचीन शास्त्रज्ञ "कणाद " ने लिखा है कि चुंबक की अदृश्य कर्षण शक्ति के कारण लोहा चुम्बक के प्रति खींचा जाता है।
5) बैरोमीटर
वायु भार मापन का भी एक यंत्र प्राचीन काल में होता था। उससे वर्षा , तूफान आदि का पहले से पता लगा लिया जाता था। उसी यंत्र का वर्तमान यूरोपियन नाम बैरोमीटर है।
6) विमान
एक प्राचीन ग्रंथ " गया चिंतामणि " में मयूर जैसे विमान का उल्लेख है। " भगवतम् " में शाल्व नरेश के विमान का उल्लेख है।
शनिस्त्रोत में , रामायण आदि में विमान का उल्लेख है। भारद्वाज ऋषि द्वारा लिखित " अंशुबोधिनी" ग्रंथ में विमानो के विवरण का एक पूरा अध्याय है।
भारद्वाज ऋषि द्वारा लिखित " बृहद्विमानशास्त्र " नामक ग्रंथ सार्थ और सटीक है।
बंगलौर के इस्टीट्यूट ऑफ साइंस के विमान - विभाग (Aeronautics Divition ) के पांच संशोधको (Research Scholars) का लिखा पत्र मद्रास के "The Hindu " में प्रकाशित हुआ था।
उस पत्र में संशोधको ने लिखा था कि " भारद्वाज मुनि द्वारा " बृहद्विमानशास्त्र " ग्रंथ में वर्णित विविध विमानों में से " रुक्मी " प्रकार के विमान की उड़ानविधि समझ में आती है। उस विधि द्वारा आज भी विमान की उड़ान की जा सकती है। लेकिन अन्य विमानों का ब्योरा समझ नहीं आता। "
7) मोटरगाड़ी
" भोजप्रबंध " नामक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ में राजा भोज के एक लकड़ी के घोड़े का वर्णन है ,जो 24 मिनटों में 22 मील चलता था। एक पंखे का भी वर्णन है जिसके स्वचालित भ्रमण से हवा लगा करती थी।
8) दूरभाष
"शुक्रनिति " के अध्याय १, श्लोक ३६७ में एक विधि का वर्णन है। जिसमें 20 सहस्त्र मील दूर चलने वाली बातों का पता राजा को उसी दिन लग जाता था।
बंदूक, पिस्तौल, तोप आदि आग्नेय अस्त्र बनाने की विधि "शुक्रनिति " नाम के प्राचीन संस्कृत - ग्रंथ का विषय है।
9) यांत्रिक मानव
रामायण के अनुसार युद्ध के अंतिम दिनों में ऐसी एक कृत्रिम सीता बनवायी थी जो राम के नाम से हु-ब-हू-हू विलाप भी करती देखी गई थी।
10) प्राचीन गुब्बारे और पैराशूट
प्राचीन भारत में विमान विद्या थी , उसी तरह ऊँचे उड़ने वाले गुब्बारे और पैराशूट भी प्राचीन काल में भी थे। इसके सम्बन्ध में अगस्त संहिता के उदाहरण
जलनीकेव यांन यद्धिमान व्योम्निकीर्तितं ।
कुमिकोषसमुदगतं कौषेयमिति कथ्यते ।
सूक्ष्मासूक्ष्मौ मृदुस्थूलै ओतप्रोतौ यथाकमम्।।
वैतानत्व च लघुता च कौषेयस्य गुणसंग्रह:।
कौशेयछत्रं कर्तव्यं सारणा कुचनात्मकम् ।
छत्रं विमानाद्विगुणं आयामादौ प्रतिष्ठितम् ।।
ऊपर की पंक्तियों में ये कहा गया है कि विमान वायु पर उसी प्रकार चलता है जैसे पानी पर नाव चलती है। उन काव्य पंक्तियों में गुब्बारों और आकाश छत्र के लिए रेशमी वस्त्र सुयोग्य कहा गया है। क्योंकि वो बड़ा लचीला होता है।
गुब्बारों से जुड़ी काव्य पंक्तियों का एक और उदाहरण है -
वायुबन्धक वस्त्रेण सुबद्धोयानमस्तके ।
उदानस्य लघुत्वेन विभ्यत्तर्याकाशयानकम् ।।
यानी वस्त्र में हाइड्रोजन पक्का बान्ध दिया जाए तो उससे आकाश में उड़ा जा सकता है।
11) केबल (तार - डोर - रज्जू)
प्राचीन कारखाने , उड़ान , संदेशप्रेषण आदि के लिए जो तार - डोर - रज्जू आदि लगते थे उनका उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में इस प्रकार है -
नवभिस्तन्नुभि: सूत्रं सूत्रैस्तु नवभिर्गुण: ।
गुणैस्तु नवभिपाँशों रश्मिस्तैनैवभिर्भवेत् ।
नवाष्टसप्तषड् संख्ये रश्मिभिरंज्जव: स्मृता:।
इस श्लोक के अनुसार नौ धागों का एक सूत्र बनता है। नौ सूत्रों का एक गुण , नौ गुणों का एक पाश , नौ पाशों से एक रश्मि और ९ ,८ ,७ या ६ रश्मि मिलकर एक रज्जू बनती है।
12) वायुपूरण वस्त्र
प्राचीन काल में ऐसे वस्त्र बनते थे जिसमें हवा भरी जा सकती थी। जिसके लिए रेशमी वस्त्र को अंजीर ,कटहल , आंव , अक्ष , कदम्ब ,मीराबोलेन वृक्ष के तीन प्रकार और दालें इनके रस या सत्व के लेप दिये जाते थे , फिर सागर तट पर मिलने वाले शंख आदि और शर्करा का घोल द्रव सीरा बनाकर उसमें वह वस्त्र भिगोया जाता था। इसके बाद उस वस्त्र को सुखा देते थे।
अगस्त संहिता में दिये कुछ श्लोकों में ऊपर लिखी विधि का वर्णन है।
13) भारत की नौकाएं
भारत विश्व को नौकाएं बनाकर दिया करता था। Murray's Handbook of India and Ceylon (1891का प्रकाशन में उल्लेख है कि ) सन् 1735 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए भारत में एक नौका बनायी गई। एक अंग्रेज अधिकारी उस नौका का सर्वेक्षण करने मुंबई गया। वहाँ के निरिकक्षक लौजी नासरवानजी था। उनके काम से वो अंग्रेज अधिकारी इतना प्रभावित हुआ कि उसे बम्बई चलकर अंग्रेजों के लिए काम करने को कहा। इन्होंने
दो पिढ़ी तक बम्बई का कारखाना लौजी कुल की निगरानी में रहा।
1771 में लौजी के दो पौत्र कामजी माणिकजी और जमशेदजी बहामनजी उस कारखाने में काम करने लगे। उन्होंने 900 - 900 टन की दो नौकाएं बनायी।
1802 में जमशेदजी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए "कार्नवालिस " नाम की युद्ध नौका बनाई, इससे ब्रिटिश अधिकारी बहुत खुश हुए और उनके कारखाने को युद्ध नौकाएं बनाने का कार्य दिया। उस व्यवस्था के अन्तर्गत जो प्रमुख युद्ध नौकाएं बनी -
Minden - 74 (सन् 1820 में ) , कार्नवालिस - 74 1745 टन वजन का था , मालाबार - 74 , सेरिंगपटनम आदि की कई नौकाएं ब्रिटिश भारतीयों से बनवाकर खरीदतें थे। इसमें गंगेज - 84 , मियामी 74, कलकत्ता - 86 यह वह नौकाएं है जिसपर तोपें रखीं जाती थी।
सारे जहाज ' सागवान लकड़ी ' के बने थे। ब्रिटिश को की लकड़ी से भारतीय सागवान लकड़ी 4 से 5 गुना ज्यादा टिकाऊ था।
Lawji castle नाम का 1000 टन व्यापारिक जहाज भारत में बनाया गया वह लगभग 75 वर्ष तक टिका रहा।
प्राचीन काल के कुछ अन्य यंत्र -
1) एकमुख रथ यंत्र -
2) द्वमुख यंत्र -
3) त्रिमुख रथ यंत्र -
4) चतुर्मुख रथ यंत्र -
5) पंचमुख यंत्र -
२) मृगकर्षण यंत्र -
5) आयस प्रसरण यंत्र -
8) सिंहास्य रथ यंत्र -
9) एक चक्र यंत्र -
जाॅयसर जी के ग्रंथ में उल्लेखित अन्य प्राचीन यंत्रों के नाम -
शस्त्र विज्ञान -
अग्नि पुराण नाम के प्राचीन संस्कृत ग्रंथ में शास्त्रों के पांच वर्ग उल्लेखित है -
10) यंत्र चलाने के लिए जो ऊर्जा लगती है उसके 8 प्रकार के स्रोत प्राचीन काल के वैदिक शास्त्रज्ञों को पता थे। वे इस प्रकार है -
१) विद्युत शक्ति से चलने वाले यंत्रों को " शक्त्योदगम " कहा जाता था।
२) जल या अग्नि जैसे प्राकृतिक श्रोतों से चलने वाले " भूतवह" कहलाते है।
३) वाष्प, पानी , भाप से संचालित यन्त्र "धूमयान " कहे जाते थे।
४) हीरे ,माणिक जैसे रत्नों से गति प्राप्त करने वाले यन्त्र "सूर्यकांत " या " चंद्रकांत " कहे जाते थे।
५) वायुशक्ति से चलने वाले यन्त्र भी होते थे।
६) भूगर्भ तेल (पेट्रोल , डीजल इत्यादि ) की ऊर्जा से चलने वाले यन्त्र " पंचशिखी " कहलाते है।
७) सूर्यताप से भी यन्त्र चलाये जाते और चुम्बकीय शक्ति से भी यंत्र चलाए जाते थे।
प्राचीन वैदिक वैज्ञानिकों को 6 प्रकार की बिजली की जानकारी थी -
1) तड़ित -
जो चमड़े या रेशम के घर्षण से उत्पन्न होती है।
2) सौदामिनी -
कांच या रत्नों के घर्षण से निर्माण की जाने वाली।
3) मेघ या वाष्प (भाप) से उत्पन्न होने वाली।
४) शतकोटि या शतकुम्भी -
जो बैटरी से निकलती है।
५) हृदिनि -
जो बैटरी के कुम्भों में संचित की जाती थी।
6) अशनि -
चुम्बकीय दण्ड से उत्पन्न होने वाली।
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